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जिन-प्रतिमाविज्ञान
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उनके समीप विभिन्न आयुधों से युक्त द्वारपाल मूर्तियों के उत्कीर्णन का विधान है। मध्य के प्राचीर में अभयमुद्रा, पाश, अंकुश और मुद्गर धारण करनेवाली जया, विजया, अजिता और अपराजिता नाम की देवियां रहती हैं। तीसरे (निचले) प्राचीर में खट्वांग एवं गले में कपाल की माला धारण किये हुए द्वारपाल (तुम्बरुदेव), साथ ही पशु, मानव एवं देव आकृतियां उत्कीर्ण होती हैं। पहले (ऊपरी) प्राचीर के द्वारों एवं भित्तियों पर वैमानिक, व्यंतर, ज्योतिष्क एवं भवनपति देवों और साधु-साध्वियों को आकृतियां उत्कीर्ण होनी चाहिए। जैन परम्परा के अनुसार जिनों के समवसरणों में सभी को प्रवेश का अधिकार प्राप्त है और इस अवसर पर समवसरण में उपस्थित होने वाले मनुष्यों और पशुओं में आपस में किसी ।। प्रकार का द्वेष या वैमनस्य नहीं रह जाता। इसो भाव को प्रदर्शित करने के लिए मूर्त अंकनों में सिंह-मृग, सिंह-गज, सर्पनकुल एवं मयुर-सर्प जैसे परस्पर शत्रुभाव वाले जीवों को साथ-साथ, आमने-सामने, दिखाया गया है । समवसरण में ही इन्द्र ने जिनों के शासनदेवताओं (यक्ष-यक्षी) को भी नियुक्त किया था।
समवसरणों के चित्रण में उपर्युक्त विशेषताएं ही प्रदर्शित हैं । सभी समवसरण तीन वृत्ताकार प्राचीरों वाले भवन के रूप में निर्मित हैं। इनके ऊपरी भाग अधिकांशतः मन्दिर के शिखर के रूप में प्रदर्शित हैं। समवसरणों में पद्मासन में बैठी जिनों की चार मतियां भी उत्कीर्ण रहती हैं। लांछनों के अभाव में समवसरणों की जिन मूर्तियों की पहचान सम्भव नहीं है । सामान्य प्रातिहार्यों से युक्त जिन मूर्तियों में कभी-कभी यक्ष-यक्षी भी निरूपित रहते हैं। प्रत्येक प्राचीर में चार प्रवेश-द्वार और द्वारपालों की मूर्तियां होती हैं। भित्तियों पर देवताओं, साधुओं, मनुष्यों एवं पशुओं की आकृतियां बनी रहती हैं। दूसरे और तीसरे प्राचीरों की मित्तियों पर सिंह-गज, सिंह-मृग, सिंह-वृषभ, मयूर-सर्प और नकुल-सर्प जैसे परस्पर शत्रुभाव वाले पशुओं के जोड़े अंकित होते हैं।
ग्यारहवीं शती ई० का एक खण्डित समवसरण कुम्भारिया के महावीर मन्दिर की देवकुलिका में है। इस समवसरण के प्रत्येक प्राचीर के प्रवेश-द्वारों पर दण्ड और फल से युक्त द्विभुज द्वारपालों की मतियां हैं । ग्यारहवीं शती ई० का एक उदाहरण मारवाड़ के जैन मन्दिर से मिला है और सम्प्रति सूरत के जैन देवालय में प्रतिष्ठित है। विमलवसही की देवकुलिका २० में ल० बारहवीं शती ई० का एक समवसरण है । इसमें ऊपर की ओर चार ध्यानस्थ जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । समी जिनों के साथ चतुर्भुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं । बारहवीं शती ई० का एक अन्य समवसरण कैम्बे से मिला है। कुम्भारिया के शान्तिनाथ मन्दिर की एक देवकुलिका में १२०९ ई० का एक समवसरण है । चार ध्यानस्थ जिन मतियों के अतिरिक्त इसमें २४ छोटी जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं।'
१ विमलवसही की देवकुलिका २० के समवसरण में यक्ष-यक्षी भी उत्कीणित हैं। २ स्ट००आ०, पृ० ९४ ३ शाह, यू०पी०, 'जैन ब्रोन्जेज़ फ्राम कैम्बे', ललितकला, अं० १३, पृ० ३१-३२ . ४ पांच और सात सर्पफणों के छत्रों से युक्त दो जिन मतियां सुपार्श्व और पावं की हैं।
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