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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
तीसरे वर्ग की मूर्तियों में दो भिन्न लांछनों वाली मूर्तियां हैं। इस वर्ग की अधिकांश मूर्तियां ग्यारहवीं शती ई० की है । इस वर्ग की मूर्तियों में ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्व, शीतल, विमल, शान्ति, कुंथु, नेमि, पार्श्व एवं महावीर की मूर्तियां हैं। मन्दिर १ की मूर्ति में विमल और कुंथु के शूकर और अज लांछन (चित्र ६२), मन्दिर ३ की मूर्ति में अजित और सम्भव के गज और अश्व लांछन, मन्दिर ४ की मूर्ति में अभिनन्दन और सुमति के कपि और क्रौंच लांछन, और मन्दिर १२ की पश्चिमी चहारदीवारी की मूर्ति में शान्ति और सुपार्श्व के मृग और स्वस्तिक लांछन अंकित हैं। मन्दिर १२ की उत्तरी चहारदीवारी पर ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की कई मूर्तियां हैं। इनमें ऋषभ, महावीर, पद्मप्रभ और नमि की मतियां हैं। मन्दिर ८ की मूर्ति में सुपाखें और पार्श्व की स्वस्तिक और सर्प लांछन से युक्त मूर्तियां हैं । सुपाव और पार्श्व के मस्तकों पर सर्पफणों के छत्र नहीं प्रदर्शित हैं।
यक्ष-यक्षी युगल केवल दो ही उदाहरणों ‘मन्दिर १९, ल० ११वीं शती ई०) में निरूपित हैं। एक मूर्ति में यक्ष-यक्षी द्विभुज हैं और उनके करों में अभयमुद्रा (गदा) एवं फल प्रदर्शित हैं। दूसरी द्वितीर्थी मूर्ति ऋषम और अजित की हैं । अजित के साथ परम्पराविरुद्ध गोमुख और चक्रेश्वरी निरूपित हैं। द्विभुज गोमुख की भुजाओं में परशु और फल हैं। गरुडवाहना चक्रेश्वरी चतुर्भुजा है और उसके करों में अभयमुद्रा, गदा, चक्र एवं शंख प्रदर्शित हैं। ऋषभ के द्विभुज यक्ष के हाथों में अभयमुद्रा और पद्म हैं। ऋषभ की चतुर्भुजा यक्षी के अवशिष्ट हाथों में अभयमुद्रा और पद्म हैं । इस मूर्ति के परिकर में पाश्र्वनाथ की लघु आकृति उ कीर्ण है। मन्दिर १९ की इन दोनों ही मूर्तियों में केवल एक ही त्रिछत्र, दुन्दुभिवादक एवं उड्डीयमान मालाधर बने हैं। तोन उदाहरणों में पंक्तिबद्ध ग्रहों की द्विभुज मूर्तियां भी बनी हैं। मन्दिर १२ के प्रदक्षिणा-पथ की मूर्वि में सूर्य उत्कूटिकासन में विराजमान हैं और उनके दोनों करों में सनाल पद्म हैं । अन्य छह ग्रह ललितमुद्रा में आसीन हैं और उनके करों में अभयमुद्रा और कलश प्रदर्शित हैं। ऊर्ध्वकाय राहु के समीप सपंफण से शोभित केतु की आकृति उत्कीर्ण है ।
पावं की द्वितीर्थी मूर्तियों में मूर्ति के छोरों पर एक सर्पफण के छत्र से युक्त दो छत्रधारिणी सेविकाएं निरूपित हैं। छत्र के शीर्ष भाग दोनों जिनों के सपंफणों के ऊपर प्रदर्शित हैं।" इन मूर्तियों में त्रिछत्र नहीं प्रदर्शित हैं। पार्श्व की कुछ द्वितीर्थी मूर्तियों (मन्दिर ८) में एक सर्पफण के छत्र से युक्त तीन चामरधर सेवक भी आमूर्तित हैं। मन्दिर १७ और १८ की पार्श्व की दो द्वितीर्थी मूर्तियों (१०वीं शती ई०) में प्रत्येक जिन के पाश्वों में तीन सर्पफणों के छत्रों से युक्त स्त्रीपुरुष सेवक आमतित है । बायीं ओर को सेविका के हाथों में लम्बा छत्र है पर पुरुष के हाथा में अभयमुद्रा और चामर हैं।
त्रितीर्थो-जिन-मूर्तियां द्वितीर्थी जिन मतियों की शैली पर ही त्रितीर्थी जिन मतियां उत्कीर्ण हुई, जिनमें दो के स्थान पर तीन जिनों की मूर्तियां हैं। सभी जिन कायोत्सर्ग-मुद्रा में निर्वस्त्र खड़े हैं। इनमें अष्ट-प्रातिहार्य भी उत्कीर्ण हैं। जैन ग्रन्थों में त्रितीर्थी जिन मूर्तियों के सम्बन्ध में भी कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता। त्रितीर्थी मूर्तियां दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य उत्कीर्ण हुईं। इनके उदाहरण केवल दिगंबर स्थलों (देवगढ़ एवं खजुराहो) से ही मिले हैं। त्रितीर्थी मूर्तियों में सर्वदा तीन अलग-अलग जिनों की ही मूतियां उत्कीर्ण हैं ।
१ सुपार्श्व के मस्तक पर सर्पफणों का छत्र नहीं है। २ मन्दिर (१२ प्रदक्षिणापथ), मन्दिर १६, म। दर १२ (चहारदीवारी) ३ मन्दिर १२ की दक्षिणी चहारदीवारी और मन्दिर १६ को द्वितोां मूर्तियों में सूर्य, राहु, केतु एवं एक अन्य ग्रहों ___ की मूर्तियां नहीं उत्कीर्ण हैं । मन्दिर १६ की मूर्ति में राहु उपस्थित है। ४ मन्दिर १२ को पश्चिमी चहारदीवारी और मन्दिर ८ की १०वीं-११वीं शती ई० की मूर्तियां ५ कुछ उदाहरणों (मन्दिर १२ एवं १७) में सेविकाओं की भुजाओं में छत्र के स्थान पर केवल दण्ड प्रदर्शित हैं।
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