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जिन-प्रतिमाविज्ञान ]
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जिन चौमुखी पर स्वस्तिक तथा मौर्य शासक अशाक के सिंह एवं वृषभ स्तम्भ शीर्षों का भी कुछ प्रभाव असम्भव नहीं है। अशोक का सारनाथ-सिंह-शोष-स्तम्भ इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है ।
जिन चौमुखी प्रतिमाओं को मुख्यतः दो वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में ऐसी मूर्तियां हैं जिनमें एक ही जिन की चार मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। दूसरे वर्ग की मूर्तियों में चार अलग-अलग जिनों की मूर्तियां हैं। पहले वर्ग की मतियों का उत्कीर्णन ल० सातवीं-आठवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ। किन्तु दूसरे वर्ग की मूर्तियां पहली शती ई० से ही बनने लगी थीं। मथुरा की कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियां इसी दूसरे वर्ग को हैं। तुलनात्मक दृष्टि से पहले वर्ग की मूर्तियां संख्या में बहुत कम हैं। पहले वर्ग की मूर्तियों में जिनों के लांछन सामान्यतः नहीं प्रदर्शित हैं। प्रारम्भिक मूर्तियां
प्राचीनतम जिन चौमुखी मूर्तियां कुषाणकाल की हैं। मथुरा से इन मूर्तियों के १५ उदाहरण मिले हैं (चित्र ६६)। सभो में चार जिन आकृतियां साधारण पीठिका पर कायोत्सर्ग में खड़ी हैं। श्रीवत्स से युक्त सभी जिन निर्वस्त्र हैं (चित्र ७३)। चार में से केवल दो हो जिनों की पहचान जटाओं ओर सात सर्पफणों की छत्रावली के आधार पर क्रमशः ऋषभ और पाव से सम्भव है। कुषाणकालीन जिन चौमुखी मूर्तियों में उपासकों एवं भामण्डल के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रातिहार्य नहीं उत्कीर्ण है। गुप्तकाल में जिन चौमुखी का उत्कीर्णन लोकप्रिय नहीं प्रतीत होता । हमें इस काल की केवल एक मूर्ति मथुरा से ज्ञात है जो पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा (बी ६८) में सुरक्षित है । कुषाणकालीन मूर्तियों के समान ही इसमें भी केबल ऋषभ एवं पार्श्व की ही पहचान सम्भव है। पूर्वमध्ययुगीन मूर्तियां
जिनों के स्वतन्त्र लांछनों के निर्धारण के साथ ही ल. आठवीं शती ई० से जिन चौमुखी मूर्तियों में सभी जिनों के साथ लांछनों के उत्कीर्णन की परम्परा प्रारम्भ हुई। ऐसी एक प्रारम्भिक मूर्ति राजगिर के सोनभण्डार गुफा में है। बिहार और बंगाल की चौमुखी मूर्तियों में सभी जिनों के साथ स्वतन्त्र लांछनों का उत्कीर्णन विशेष लोकप्रिय था । अन्य क्षेत्रों में सामान्यतः कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों के समान केवल दो ही जिनों (ऋषभ एवं पाव) की पहचान सम्भव है। चौमखी मतियों में ऋषभ और पार्श्व के अतिरिक्त अजित, सम्भव, सुपावं, चन्द्रप्रभ, नेमि, शान्ति और महावीर की मतियां उत्कीर्ण हैं। ल० आठवीं-नवी शती ई० में जिन चौमुखी मूर्तियों में कुछ अन्य विशेषताएं भी प्रदर्शित हई। चौमखी मतियों में चार प्रमुख जिनों के साथ ही लघु जिन मूर्तियों का उत्कीर्णन भी प्रारम्भ हुआ। लघु जिन मूर्तियों को संख्या सदैव घटती-बढती रही है। इनमें कभी-कभी २० या ४८ छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, जो चार मुख्य जिनों के साथ मिलकर क्रमश: जिन चौवीसी और नन्दीश्वर द्वीप के भाव को व्यक्त करती हैं।
चारों प्रमुख जिन मूर्तियों के साथ सामान्य प्रातिहार्यों एवं कभी-कभी यक्ष-यक्षी युगलों और नवग्रहों को भी प्रदर्शित किया जाने लगा। साथ ही चौमुखी मूर्तियों के शीर्षमाग छोटे जिनालयों के रूप में निर्मित होने लगे, जिनमें आमलक और कलश भी उत्कीर्ण हुए। कुछ क्षेत्र
tr xxटा भी उत्कीर्ण हए। कुछ क्षेत्रों में चतुर्मुख जिनालयों का भी निर्माण हुआ। चतुर्मुख जिनालय का एक प्रारम्भिक उदाहरण (ल० ९वीं शती ई०) पहाड़पुर (बंगाल) से मिला है । यह चौमुख मन्दिर चार प्रवेश-द्वारों से यक्त है और इसके मध्य में चार जिन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। ल० ग्यारहवीं शती ई० का एक विशाल चौमुख जिनालय इन्दौर (गना. म. प्र.) में है (चित्र ६९)। चारों जिन आकृतियां ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं और सामान्य प्रातिहार्यों एवं
१ अग्रवाल, वी० एस०, इण्डियन आर्ट, वाराणसी, १९६५, पृ० ४९-५०, २३२ २ उल्लेखनीय है कि चौमुखी मूर्तियों में जिन अधिकांशतः कायोत्सर्ग में ही निरूपित हैं। ३ दे, सुधीन, पू०नि०, पृ० २७ ४ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्र संग्रह ८२.३२, ८२.४०
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