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जिन-प्रति माविज्ञान
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खजुराहो में केवल एक त्रितीर्थी मूर्ति (मन्दिर ८) है । ग्यारहवीं शती ई० की इस मूर्ति में नेमि, पार्श्व और महावीर की मतियां निरूपित हैं। देवगढ़ में २० से अधिक त्रितीर्थी मतियां हैं। देवगढ की त्रितीर्थी जिन मतियों को लाक्षणिक विशेषताओं के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में ऐसी मतियां हैं जिनमें तीन जिनों को कायोत्सर्ग-मृद्रा में निरूपित किया गया है। दूसरे वर्ग में ऐसी मूर्तियां हैं जिनमें मध्यवर्ती जिन ध्यानमुद्रा में आसीन हैं. पर पार्श्ववर्तो जिन आकृतियां कायोत्सर्ग में खड़ी हैं । तीसरे वर्ग में ऐसी मूर्तियां हैं जिनमें कायोत्सर्ग में खड़ी दो जिन मतियों के साथ तीसरी आकृति सरस्वती या भरत चक्रवर्ती की है। इनमें जिन की तीसरी आकृति मूर्ति के किसी अन्य छोर पर उत्कीर्ण है। जिनों के साथ सरस्वती एवं भरत के निरूपण सम्भवतः उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि और उन्हें जिनों से समकक्ष प्रतिष्ठित करने के प्रयास के सूचक हैं । पहले वर्ग की दसवीं शतीई० की एक मति मन्दिर १२ की उत्तरी चहारदीवारी पर है। इस मति में शंख, सर्प एवं सिंह लांछनों से युक्त नेमि, पाव एवं महावीर निरूपित हैं। पावं के साथ सात सर्पफणों का छत्र और नेमि तथा महावीर के नीचे उनके नाम भी उत्कीर्ण हैं।' मन्दिर ३ में कपि, पुष्प एवं पद्म लांछनों से यक्त अभिनन्दन, पद्मप्रभ और नमि की एक त्रितीर्थी मूर्ति (११वीं शतीई०) है । मन्दिर १ की भित्ति पर ग्यारहवीं शतोई० की आठ त्रितीर्थी मूर्तियां हैं । एक में लांछन कपि (अभिनन्दन), गज (अजित) और अश्व (सम्भव) हैं । दूसरी में एक जिन के मस्तक पर पांच सर्पफणों का छत्र (सुपाश्व) है और दूसरे जिन का लांछन शंख (नेमि) है, पर तीसरे जिन का लांछन स्पष्ट नहीं है। तीसरी मति में दो जिनों के लांछन मृग (शान्ति) एवं बकरा (कुंथु) हैं, पर तीसरे जिन का लांछन स्पष्ट नहीं और चौथी मति में लांछन सर्प (पार्श्व), स्वस्तिक (सुपाव) और कोई पशु (?) हैं। सुपाश्र्व और पाश्वं क्रमशः पांच और सात सर्पफणों के छत्र से भो युक्त हैं। पांचवीं मूर्ति में केवल एक ही जिन का लांछन स्पष्ट है, जो अर्धचन्द्र (चन्द्रप्रभ) है। छठी मति में लांछन स्वस्तिक (सुपार्श्व), पुष्प (पुष्पदन्त) और अज (? कुंथु) हैं। सुपार्श्व के मस्तक पर सर्पफणों का छत्र नहीं है
इस मति के बायें छोर पर जैन आचार्यों की तीन मूर्तियां हैं। समान विवरणों वाली सातवीं मूर्ति में भी बायीं ओर जैन आचार्यों की तीन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इस उदाहरण में जिनों के लांछन स्पष्ट नहीं हैं । आठवीं मूर्ति में भी जिनों के लांछन स्पष्ट नहीं हैं । केवल सात सर्पफणों के शिरस्त्राण से युक्त एक जिन की पहचान पार्श्व से सम्भव है। इस मूर्ति के दाहिने छोर पर यक्ष-यक्षी और लांछन से युक्त महावीर को एक मति है।
दूसरे वर्ग की दसवीं शती ई० की एक मूर्ति मन्दिर २९ के शिखर पर है (चित्र ६४)। सभी जिनों के साथ द्विभज यक्ष यक्षी निरूपित हैं। मध्य की ध्यानस्थ मूर्ति के साथ लांछन नहीं उत्कीर्ण है पर यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं, जिनके आधार पर जिन की पहचान नेमि से की जा सकती है । नेमि के दक्षिण एवं वाम पावों में क्रमशः पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं। ग्यारहवीं शती ई० की एक मूर्ति मन्दिर १ की मित्ति पर है। मध्य में यक्ष-यक्षी से वेष्टित चन्द्रप्रभ की ध्यानस्थ मूर्ति है । चन्द्रप्रभ के दोनों ओर सुपाव और पार्व को कायोत्सर्ग मूतियां हैं।
तीसरे वर्ग की केवल दो ही मूर्तियां (११वीं शती ई०) हैं। मन्दिर २ की पहली मूर्ति में बायें छोर पर बाहबली की कायोत्सर्ग मूर्ति है (चित्र ७५) । एक ओर भरत की भी कायोत्सर्ग मूर्ति बनी है। जैन परम्परा में उल्लेख है कि ऋषभपत्र भरत ने जीवन के अन्तिम दिनों में दीक्षा ग्रहण कर तपस्या की थी। भरत-मूर्ति की पीठिका पर गज, अश्व, चक्र, घट, खडग एवं वज्र उत्कीर्ण हैं, जो चक्रवर्ती के लक्षण हैं। मूर्ति की जिन आकृतियों की पहचान लांछनों के अभाव में सम्भव नहीं है। मन्दिर १ की दूसरी मूर्ति में अजित और सम्भव के साथ वाग्देवी सरस्वती की चतुर्भुजी मूर्ति उत्कीर्ण है (चित्र ६५)। मयूरवाहना सरस्वती के करों में वरदमुद्रा, अक्षमाला, पद्म और पूस्तक हैं। तीसरी जिन आकृति की पहचान सम्भव नहीं है।
१ तिवारी, एम०एन०पी०, 'ऐन अन्पब्लिश्ड त्रितीर्थिक जिन इमेज फ्राम देवगढ़', जैन जर्नल, खं० ११, अं० २, __ अक्तूबर ७६, पृ० ७३-७४ २ तिवारी, एम० एन० पी०, 'यू यूनिक त्रितीथिक जिन इमेज फ्राम देवगढ़', ललितकला, अं. १७, पृ० ४१-४२
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