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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
दक्षिण भारत - दक्षिण भारत से पर्याप्त संख्या में महावीर की मूर्तियां मिली हैं। इनमें अधिकांशतः महावीर ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं । महावीर के सिंह लांछन और यक्ष-यक्षी के नियमित चित्रण प्राप्त होते हैं। बादामी की गुफा ४ में महावीर की सातवीं शती ई० की कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं। इनमें चतुर्भुज यक्ष-यक्षी और परिकर में २४ छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं | महावीर के कन्धों पर जटाएं भी प्रदर्शित हैं। एलोरा की जैन गुफाओं (३०, ३१, ३२, ३३, ३४ ) में भी महावीर की कई मूर्तियां (९वीं - ११वीं शती ई०) हैं। इनमें महावीर ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं और उनके यक्षयक्षी के रूप में गजारूढ़ सर्वानुभूति एवं सिंहवाहना अम्बिका निरूपित हैं । समान विवरणों वाली एक मूर्ति बम्बई के हरीदास स्वाली संग्रह में है । दो कायोत्सर्ग मूर्तियां हैदराबाद संग्रहालय में हैं । इन मूर्तियों के परिकर में २३ छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। तीन मूर्तियां मद्रास गवर्नमेन्ट म्यूज़ियम में हैं ।" दो उदाहरणों में यक्ष-यक्षी और एक उदाहरण में २३ छोटी जिन आकृतियां बनी हैं। दक्षिण भारत से मिली ल० नवीं दसवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति पेरिस संग्रहालय (म्यूजे गीमे) में है । मूर्ति की पीठिका पर सिंह लांछन और परिकर में सात सर्पफणों वाले पार्श्वनाथ और बाहुबली की कायोत्सर्गं मूर्तियां अंकित हैं ।
विश्लेषण
सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि उत्तर भारत में ऋषभ और पार्श्व के बाद महावीर ही सर्वाधिक लोकप्रिय थे । गुप्त युग में महावीर के सिंह लांछन का प्रदर्शन प्रारम्भ हुआ । भारत कला भवन, वाराणसी की ल० छठीं शती ई० की मूर्ति (१६१ ) इसका प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है। महावीर की मूर्तियों में ल० दसवीं शती ई० में यक्ष-यक्षी का अंकन प्रारम्भ हुआ । यक्ष-यक्षी युगलों से युक्त दसवीं शती ई० की सभी महावीर मूतियां उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश में देवगढ़, ग्यारसपुर, खजुराहो एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे ८०८) में हैं । मूर्त अंकनों में महावीर के यक्ष-यक्षी का पारम्परिक या कोई स्वतन्त्र स्वरूप कभी भी स्थिर नहीं हो सका । केवल देवगढ़, खजुराहो, ग्यारसपुर एवं राजपूताना संग्रहालय, स्वतन्त्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। बिहार, उड़ीसा और बंगाल गुजरात एवं राजस्थान की मूर्तियों में यक्ष-यक्षो सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । अष्ट-प्रातिहार्यो, नवग्रहों एवं लघु जिन आकृतियों के चित्रण सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय थे । महावीर की जीवन्तस्वामी मूर्तियों और उनके जीवनदृश्यों के अंकन केवल गुजरात और राजस्थान के श्वेतांबर स्थलों से ही मिले हैं ।"
अजमेर (२७९) की ही कुछ महावीर मूर्तियों में की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी उत्कीर्णं ही नहीं
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द्वितीर्थी-जिन-मूर्तियां
द्वितीर्थी जिन मूर्तियों से आशय उन मूर्तियों से है जिनमें दो जिन-मूर्तियां साथ-साथ उत्कीर्ण हैं । ऐसी जिन मूर्तियों का निर्माण परम्परा सम्मत नहीं है, क्योंकि जैन ग्रन्थों में हमें द्वितीर्थी जिन मूर्तियों के सम्बन्ध में किसी प्रकार के उल्लेख नहीं मिलते। इन मूर्तियों का निर्माण नवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य हुआ है । इनके उदाहरण केवल दिगंबर स्थलों से ही मिले हैं । सर्वाधिक मूर्तियां खजुराहो और देवगढ़ में हैं। लाक्षणिक विशेषताओं के आधार पर द्वितीर्थी जिन मूर्तियों
१ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्र संग्रह ए २१- ६०, ६१
२ गुप्ते, आर०एस० तथा महाजन, बी०डी०, अजन्ता, एलोरा ऐण्ड औरंगाबाद केव्स, बम्बई, १९६२, पृ०१२९-२२३
३ शाह, यू०पी०, 'जैन ब्रोन्जेज़ इन हरीदास स्वालीज कलेक्शन', बु०प्र०वे० म्यू० वे०इं०, अं० ९, पृ० ४७-४९
४ राव, एस०एच०, 'जैनिज्म इन दि डकन', ज०ई० हि०, खं० २६, भाग १ - ३, पृ० ४५-४९
५ रामचन्द्रन, टी०एन०, जैन मान्युमेन्ट्स ऐण्ड प्लेसेज ऑव फर्स्ट क्लास इम्पार्टेन्स, कलकत्ता, १९४४, पृ० ६४-६६
६ जै०क०स्था०, खं० ३, पृ० ५६३
७ राजपूताना संग्रहालय, अजमेर (२७९ ) की महावीर मूर्ति इसका अपवाद है ।
८ मथुरा का कुषाणकालीन फलक ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे ६२६) इसका अपवाद है ।
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