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जीवनदृश्य
पार्श्व के जीवनदृश्य कुम्भारिया के शान्तिनाथ एवं महावीर मन्दिरों और आबू के लूणवसही के वितानों पर उत्कीर्ण हैं । ओसिया की पूर्वी देवकुलिका के वेदिकाबंध की दृश्यावली भी सम्भवतः पार्श्व से सम्बन्धित है ( चित्र ३७ ) | वसही (१२३० ई०) के अतिरिक्त अन्य सभी उदाहरण ग्यारहवीं शती ई० के हैं । कल्पसूत्र के चित्रों में भी पार्श्व के जीवनदृश्य अंकित हैं । पार्श्व के जीवनदृश्यों में पंचकल्याणकों और पूर्वजन्मों एवं उपसर्गों की कथाएं विस्तार से अंकित हैं । कुम्भारिया के महावीर मन्दिर की पश्चिमी प्रमिका के छठें वितान (उत्तर से) पर पार्श्व के जीवनदृश्य उत्कीर्णं हैं । इनमें पार्श्व के पूर्वभवों के दृश्यों, विशेषकर मरुभूति (पाखं) और कमठ (मेघमाली) के जीवों के विभिन्न भवों के संघर्ष को विस्तार से दरशाया गया है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में उल्लेख है कि जम्बूद्वीप स्थित भारत में पोतनपुर नाम का एक राज्य था। यहां का शासक अरविन्द था, जिसने जीवन के अन्तिम वर्षों में मुनिधर्म की दीक्षा ली थी । अरविन्द के राज्य में विश्वभूति नाम का एक ब्राह्मण पुरोहित रहता था जिसके कमठ और मरुभूति नाम के दो पुत्र थे । ज्ञातव्य है कि मरुभूति का जीव दसवें जन्म में तीर्थंकर पार्श्व और कमठ का जीव मेघमाली हुआ । मरुभूति का न सांसारिक वस्तुओं में नहीं लगता था, जब कि कमठ उन्हीं में लिप्त रहता था। कमठ का मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा से अनैतिक सम्बन्ध स्थापित हो गया था । जब मरुभूति ने राजा अरविन्द से इसकी शिकायत की तो राजा ने कमठ को दण्डित किया । इस घटना के बाद लज्जावश कमठ जंगलों में जाकर साधु हो गया। कुछ समय बाद जब मरुभूति कमठ के पास क्षमायाचना के लिए पहुंचा तो कमठ ने क्षमा करने के स्थान पर सक्रोध उसके मस्तक पर एक विशाल पत्थर से प्रहार किया । इस सांघातिक प्रहार से मरुभूति की मृत्यु हो गई । अपने इस दुष्कृत्य के कारण कमठ सदैव के लिए नरक का अधिकारी बन गया । "
[ जैन प्रतिमाविज्ञान
महावीर मन्दिर की दृश्यावली दो आयतों में विभक्त है । दक्षिण की ओर मध्य में वार्तालाप की मुद्रा में अरविन्द की मूर्ति उत्कीर्ण है । अरविन्द के समक्ष दो आकृतियां बैठी हैं । एक आकृति नमस्कार मुद्रा में है और दूसरी की एक भुजा ऊपर उठी है । ये निश्चित ही मरुभूति और कमठ की मूर्तियां हैं। आगे साधु के रूप में कमठ की एक मूर्ति उत्कीर्ण है । श्मश्रुयुक्त कमठ की दोनों भुजाओं में एक शिलाखण्ड है उत्कीर्ण है, जिस पर कमठ शिलाखण्ड से प्रहार करने को उद्यत मूर्तियों के नीचे 'अरविन्द मुनि' उत्कीर्ण है ।
। कमठ के समक्ष नमस्कार मुद्रा में मरुभूति की आकृति । आगे मुखपट्टिका से युक्त दो जैन मुनि निरूपित हैं ।
जैन परम्परा के अनुसार दूसरे जन्म में मरुभूति का जीव गज और प्रबोधन का समय निकट जानकर मुनि अरविन्द अष्टापद पर्वत पर कायोत्सर्ग ओर दौड़ा पर समीप पहुंचने पर मुनि की तपस्या के प्रभाव से शान्त हो गया। हो गया और उसने अपना समय व्रत और साधना में व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन जब कुक्कुट -सर्प ने गज को देखा तो उसे पूर्वजन्म के वैमनस्य का स्मरण हो आया और उसने गज को डस लिया । दंश के बाद गज ने अन्न-जल त्याग दिया और तपस्या करते हुए अपने प्राण त्याग दिये । २ दृश्य में एक वृक्ष के समीप अरविन्द ऋषि और गज आकृति चित्रित हैं । नीचे 'मरुभूति जीव' लिखा है । समीप ही दूसरी गज आकृति भी उत्कीर्ण है जिसकी पीठ पर कुक्कुट सर्प को दंश करते हुए दिखाया गया है। अगले दृश्य में एक वृक्ष के समीप दो आकृतियां खड़ी हैं और उनके मध्य में एक आकृति बैठी है । मध्य की आकृति के मस्तक पर पार्श्ववर्ती आकृतियां किसी तेज धार की वस्तु से प्रहार कर रही हैं । यह कमठ के जीव की नरक यातना का दृश्य है । जैन परम्परा में उल्लेख है कि कमठ का जीव तीसरे भव में नरकवासी हुआ था और वहां उसे तरह-तरह की यातनाएं दी गई थीं । मरुभूति तीसरे भव में देवता हुए ।
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१ त्रि०श०पु०च०, खं० ५, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज १३९, बड़ौदा, १९६२, पृ० ३५६-५९ २ वही, पृ० ३५९-६३
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कमठ का जीव कुक्कुट सर्प हुआ । गज के
में
खड़े हो गये । गज क्रोध में ऋषि की मुनि के उपदेशों के प्रभाव से गज यति
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