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जिन - प्रतिमाविज्ञान ]
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क्षेत्र की नीचे विवेचित सभी मूर्तियों में पाखं निर्वस्त्र हैं और कायोत्सर्गं में खड़े हैं। केवल कर्नाटक से मिली और ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन में सुरक्षित एक मूर्ति में ही पारखं ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं । मूलनायक के दोनों ओर सेवकों के रूप में धरणेन्द्र एवं पद्मावती का निरूपण विशेष लोकप्रिय था । एलोरा और बादामी की जैन गुफाओं में पार्श्व की कई मूर्तियां हैं। बादामी की गुफा ४ के मुखमण्डप की पश्चिमी दीवार की मूर्ति (७वीं शती ई०) में पाश्व के शीर्षभाग में सम्भवतः मेघमाली की मूर्ति उत्कीर्ण है ।" दाहिनी ओर एक सर्प फण के छत्र से शोभित पद्मावती खड़ी है जिसके हाथ में एक लम्बा छत्र है । बायीं ओर धरणेन्द्र की आकृति है जिसका एक हाथ अभयमुद्रा में है। मूर्ति में एक भी प्रातिहार्य नहीं उत्कीर्ण है । समान विवरणों वाली सातवीं शती ई० की एक अन्य मूर्ति ऐहोल ( बीजापुर) की जैन गुफा के मुखमण्डप की पश्चिमी दीवार पर उत्कीर्ण है। एलोरा की गुफा ३३ की मूर्ति (११वीं शती ई०) में बायीं ओर मेघमाली के उपसर्ग भी चित्रित हैं । 3 दाहिने पाव में छत्रधारिणी पद्मावती है कन्नड़ शोध संस्थान संग्रहालय की एक मूर्ति (५३) पार्श्व के दोनों ओर धरणेन्द्र एवं पद्मावती की चतुर्भुज मूर्तियां हैं हैदराबाद संग्रहालय की एक मूर्ति ( १२वीं शती ई०) में भी चतुर्भुज यक्ष- यक्षी निरूपित हैं ।" परिकर में २२ छोटी जिन आकृतियां, चामरधर, त्रिछत्र और दुन्दुभिवादक भी उत्कीर्ण हैं | ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन की मूर्ति ( १२वीं शती ई०) में सात सर्पफणों के छत्र से शोभित पार्श्व के समीप दो चामरधर सेवक और पीठिका छोरों पर गजारूढ़ धरणेन्द्र यक्ष और सर्पवाहना पद्मावती यक्षी निरूपित हैं ।
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विश्लेषण
उत्तर भारत में ऋषभ के बाद जिनों में पार्श्व तो पार्श्व की ऋषभ से भी अधिक मूर्तियां हैं ।
ही सर्वाधिक लोकप्रिय थे । ल० पहली शती ई० पू० में
सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि उड़ीसा की उदयगिरि-खण्डगिरि गुफाओं में मथुरा में पार्श्व के मस्तक पर सात सर्पफणों के छत्र का प्रदर्शन प्रारम्भ हुआ । यहां उल्लेखनीय है कि पार्श्व के सात सर्पफणों का निर्धारण ऋषभ की जटाओं से कुछ पूर्व ही हो गया था । ऋषभ के साथ जटाएं पहली शती ई० में प्रदर्शित हुईं। पार्श्व के साथ सर्प लांछन का चित्रण केवल कुछ ही उदाहरणों में हुआ है। दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की ये मूर्तियां उत्तर प्रदेश, बंगाल एवं उड़ीसा के विभिन्न स्थलों से मिली हैं । पार्श्व के शीर्ष भाग में प्रदर्शित सर्प की कुण्डलियां सामान्यतः पार्श्व के चरणों या घुटनों तक प्रसारित हैं । कभी- कभी पारवं सपं की कुण्डलियों के ही आसन पर बैठे भी निरूपित हैं। शीर्ष भाग में प्रदर्शित सर्पफणों के छत्र के कारण पार्श्व की मूर्तियों में भामण्डल नहीं उत्कीर्ण हैं । जिन मूर्तियों में पार्श्व की सेविका की भुजा में लम्बा छत्र प्रदर्शित है, उनमें शीर्षभाग में त्रिछत्र नहीं उत्कीर्ण हैं ।
श्वेतांबर मूर्तियों में मूलनायक के दोनों ओर सामान्य चामरघर आमूर्तित हैं। पर दिगंबर स्थलों की मूर्तियों में अधिकांशतः मूलनायक के दाहिने और बांयें पावों में सर्पफणों की छत्रावलियों वाली पुरुष-स्त्री सेवक आकृतियां निरूपित हैं । इनका अंकन पांचवीं छठीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ । पुरुष आकृति या तो नमस्कार - मुद्रा में है, या फिर उसके एक हाथ में चामर है । स्त्री की भुजा में एक लम्बे दण्ड वाला छत्र है जिसका छत्र भाग पार्श्व के सर्पफणों के ऊपर प्रदर्शित है | ये धरणेन्द्र एवं पद्मावती की उस समय की मूर्तियां हैं जब मेघमाली के उपसर्गों से पार्श्व की रक्षा करने के लिए वे देवलोक से आये थे । पार्श्व की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का चित्रण बहुत नियमित नहीं था । ल० सातवीं शती ई० में यक्षयक्षी का चित्रण प्रारम्भ हुआ । यक्ष-यक्षी सामान्यतः सर्वानुभूति एवं अम्बिका या फिर सामान्य लक्षणों वाले हैं ।
१ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्र संग्रह ए २१-५९
२ वही, ए २१-२४ : पाखं यहां पांच सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं ।
३ आकिअलाजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, दिल्ली, चित्र संग्रह ९९६.५५
४ अन्निगेरी, ए० एम० पु०नि०, पृ० १९
५ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्र संग्रह १६६.६७
६ जै०क०स्था०, खं० ३, पृ० ५५७
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