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जिन-प्रतिमाविज्ञान ]
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विष्णुपुर (बाकुड़ा) के धरपत मन्दिर से ल० दसवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति मिली है। मूर्ति के परिकर में २४ छोटी जिन मूर्तियां बनी हैं। दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० की पांच महावीर मूर्तियां अलुआरा से मिली हैं और पटना संग्रहालय में सुरक्षित (१०६७०-७३, १०६७७) हैं। सभी उदाहरणों में महावीर निर्वस्त्र हैं और कायोत्सर्ग में खड़े हैं। एक उदाहरण में नवग्रहों की भी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।
चरंपा (उड़ीसा) से मिली ल० दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० की एक निर्वस्त्र मूर्ति उड़ीसा राज्य संग्रहालय, भुवनेश्वर में है। महावीर कायोत्सर्ग में खड़े हैं और उनका लांछन पीठिका पर उत्कीर्ण है। एक ध्यानस्थ मूति बारभुजी गुफा में है (चित्र ५९) । मूर्ति के नीचे विंशतिभुज यक्षी निरूपित है। एक कायोत्सर्ग मूर्ति त्रिशूल गुफा में है। बारहवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति वैभारगिरि के जैन मन्दिर में है। इस प्रकार इस क्षेत्र में सिंह लांछन का चित्रण नियमित था पर यक्ष-यक्षी का अंकन दुर्लभ था ।
जीवनदृश्य
मथरा के कंकाली टीले से प्राप्त फलक और कुम्भारिया के महावीर एवं शान्तिनाथ मन्दिरों के वितानों पर महावीर के जोवनदृश्य उत्कीर्ण हैं। मथुरा से प्राप्त फलक पहली शती ई० का है। कुम्भारिया के मन्दिरों के दृश्य ग्यारहवीं शती ई० के हैं। कल्पसूत्र के चित्रों में भी महावीर के जीवनदृश्य हैं। महावीर के जीवनदृश्यों में पूर्वजन्मों, पंचकल्याणकों, विवाह, चन्दनबाला को कथा एवं महावीर के उपसर्गों के विस्तृत अंकन हैं।
___ मथुरा से प्राप्त फलक राज्य संहालय, लखनऊ (जे ६२६) में सुरक्षित है (चित्र ३९)। फलक पर महावीर के गर्भापहरण का दृश्य अंकित है। फलक पर इन्द्र के प्रधान सेनापति हरिनंगमेषी (अजमुख) को ललितमुद्रा में एक ऊंचे आसन पर बैठे दिखाया गया है । आकृति के नीचे 'नेमेसो' उत्कीर्ण है। नैगमेषी सम्भवतः महावीर के गर्भ परिवर्तन का कार्य पूरा कर इन्द्र की सभा में बैठे हैं। नैगमेषी के समीप एक निर्वस्त्र बालक आकृति खड़ी है। बालक की पहचान महावीर से की गई है। बालक के समीप ही दो स्त्रियां खड़ी हैं। फलक के दूसरे ओर एक स्त्री की गोद में एक बालक बैठा है । ये सम्भवतः त्रिशला और महावीर की आकृतियां हैं।
कम्भारिया के महावीर मन्दिर की पश्चिमी भ्रमिका के वितान (उत्तर से दूसरा) पर महावीर के जीवनदश्य हैं (चित्र ४०) । सम्पूर्ण दृश्यावली तीन आयतों में विभक्त है। प्रारम्भ में महावीर के पूर्वभवों के अंकन हैं । जैन परम्परा के अनुसार महावीर के जीव ने नयसार के भव में सत्कर्म का बीज डालकर क्रमशः उसका सिंचन किया और २७ वें भव में तीर्थंकर-पद प्राप्त किया। राजा के आदेश पर नयसार एक बार वन में लकड़ियां काटने गया। वन में न कुछ भूखे मुनियों से हुई, जिन्हें उसने भक्तिपूर्वक भोजन कराया । मुनियों ने नयसार को आत्मकल्याण का मार्ग बतल १८ वें भव में नयसार का जीव त्रिपृष्ठ वासुदेव हुआ। त्रिपृष्ठ ने शालिक्षेत्र के एक उपद्रवी सिंह को बिना रथ और शस्त्र के मार डाला था । एक दिन त्रिपृष्ठ के राजमहल में कुछ संगीतज्ञ आये । सोने के पूर्व त्रिपृष्ठ ने अपने शय्यापालकों को यह आदेश दिया कि जब मुझे निद्रा आ जाय तो संगीत का कार्यक्रम बन्द करा दिया जाय, किन्तु शय्यापालक संगीत में इतने रम गये कि वे त्रिपृष्ठ के आदेश का पालन करना भूल गये। निद्रा समाप्त होने पर जब त्रिपृष्ठ ने देखा कि संगीत का कार्यक्रम पर्ववत चल रहा है तो वह अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने आज्ञाभंग करने के अपराध में शय्यापालक के कानों
१ चौधरी, रवीन्द्रनाथ, 'धरपत टेम्पल', माडर्न रिव्यू, खं० ८८, अं० ४, पृ० २९७ २ प्रसाद, एच० के०, पू०नि०, पृ० २८८
३ दश, एम० पी, पू०नि०, पृ०५२ ४ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३३ ५ कुरेशी, मुहम्मद हमीद, ऐन्शण्ट मान्युमेण्ट्स इन दि प्रॉविन्स ऑव बिहार ऐण्ड उड़ीसा, पृ० २८२ ६ चन्दा, आर० पी०, पू०नि०, फलक ५७ बी
७ एपि० इण्डि०, खं० २, पृ० ३१४, फलक २
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