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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
हाथ से केशों का लुंचन कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि अन्यत्र जिनों को ध्यानमुद्रा में बैठकर केशों का लुंचन करते हुए दिखाया गया है । पाखँ के समीप ही हार, मुकुट, अंगूठी जैसे आभूषण चित्रित हैं, जिनका दीक्षा के पूर्व पार्श्व ने परित्याग किया था । समीप ही इन्द्र को एक पात्र में पार्श्व के लुंचित केशों को संचित करते हुए दिखाया गया है । दक्षिण की ओर पार्श्व की तपस्या का चित्रण है । पार्श्व कायोत्सर्ग में खड़े हैं। पार्श्व के शीर्ष भाग में सर्पफणों का छत्र भी प्रदर्शित है । समीप ही नमस्कार-मुद्रा में जटाजूट से शोभित एक आकृति उत्कीर्ण है, जो सम्भवतः अपने कार्यों के लिए पार्श्व से क्षमायाचना करती हुई मेघमाली की आकृति है । पार के बांयी ओर एक सर्पफण के छत्र से युक्त धरणेन्द्र की आकृति है । धरणेन्द्र सर्प की कुण्डलियों पर दोनों हाथ जोड़कर बैठे हैं । आकृति के नीचे 'धरणेन्द्र' लिखा है । धरणेन्द्र के समीप ही नमस्कार - मुद्रा में एक दूसरी आकृति भी बैठी है, जिसे लेख में 'कंकाल' कहा गया है। आगे एक सर्पफण की छत्रावली वाली वैरोट्या (धरणेन्द्र की पत्नी ) मी निरूपित है । समीप ही सप्त सर्पफणों के शिरस्त्राण से सुशोभित पार्श्व की क ध्यानस्थ मूर्ति है । आगे पार्श्व का समवसरण बना है ।
कुमारिया के शान्तिनाथ मन्दिर की पूर्वी भ्रमिका के वितान पर भी पार्श्व के जीवनदृश्य उत्कीर्ण हैं । शान्तिनाथ मन्दिर के जीवनदृश्य विवरण की दृष्टि से पूरी तरह महावीर मन्दिर के जीवनदृश्यों के समान हैं । अतः उनका वर्णन यहां अपेक्षित नहीं है ।
ओसिया की पूर्वी देवकुलिका की दृश्यावली की सम्भावित पहचान दो कारणों से पार्श्व से की गई है । पहला यह कि ललाट-बिम्ब पर पार्श्वनाथ की मूर्ति उत्कीर्ण है । अतः यह सम्भावना है कि देवकुलिका पार्श्वनाथ को समर्पित थी । दूसरा यह कि ललाट-बिम्ब की पाश्र्व मूर्ति के नीचे दो उड्डीयमान आकृतियों द्वारा धारित एक मुकुट चित्रित है । वेदिकाबन्ध की दृश्यावली में भी ठीक इसी प्रकार से एक मुकुट उत्कीर्ण है ।
उत्तर की ओर १४ मांगलिक स्वप्न और जिन की माता की शिशु के साथ लेटी हुई मूर्ति उत्कीर्ण हैं। आगे पार्श्व के जन्म अभिषेक का दृश्य है जिसमें पाखं इन्द्र की गोद में बैठे हैं। आगे खड्ग, खेटक, चाप, थर आदि शस्त्रास्त्र एवं पार्श्व के राज्यारोहण और युद्ध दृश्य हैं । युद्ध-दृश्य में सम्भवतः पारखं और यवनराज की सेनाएं प्रदर्शित हैं । दृश्य में दोनों पक्षों की सेनाओं के युद्ध का चित्रण नहीं किया गया है। जैन परम्परा में भी यही उल्लेख मिलता है कि युद्ध के पूर्व ही यवनराज ने आत्मसमर्पण कर दिया था । दक्षिण की ओर एक रथ पर दो आकृतियां बैठी । आगे स्थानक - मुद्रा में एक चतुर्भुज मूर्ति उत्कीर्ण है । किरीटमुकुट एवं वनमाला से शोभित आकृति के दो सुरक्षित हाथों में गदा एवं चक्र हैं। आगे जिन की दीक्षा और तपस्या के दृश्य हैं । कायोत्सर्गं में खड़ी जिन-मूर्ति के पास एक देवालय उत्कीर्णं है जिसमें ध्यानस्थ जिन-मूर्ति प्रतिष्ठित है ।
लूणवसही की देवकुलिका १६ के वितान के दृश्य में हस्तिकलिकुण्डतीर्थं या अहिच्छत्रा नगर की उत्पत्ति की कथा विस्तार से चित्रित है । विविधतीर्थंकल्प में उल्लेख है कि पार्श्व के उपर्युक्त स्थल की यात्रा के बाद वहां जैन तीर्थं की स्थापना हुई । कल्पसूत्र के चित्रों में पार्श्व के पूर्वभव, च्यवन, जन्म, जन्म अभिषेक, दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति एवं समवसरण के चित्रांकन हैं ।" पूर्वभवों के चित्रण में कठ के पंचाग्नितप के दृश्य भी हैं ।
दक्षिण भारत—उत्तर भारत के समान ही दक्षिण भारत से भी विपुल संख्या में पार्श्व की मूर्तियां मिली हैं । शीर्ष भाग में सात सर्पफणों के छत्र सभी उदाहरणों में प्रदर्शित हैं । सर्पं लांछन किसी उदाहरण में नहीं है । इस
१ गर्भगृह की जिन प्रतिमा गायब है ।
२ इस आकृति के उत्कीर्णन का सन्दर्भ स्पष्ट नहीं है । पर यदि यह आकृति कृष्ण की है तो सम्पूर्ण दृश्यावली नेमि से भी सम्बन्धित हो सकती है ।
४ विविधतीर्थकल्प, पृ० १४, २६
३ जयन्त विजय, मुनिश्री, पू०नि०, पृ० १२३-२५ ५ ब्राउन, डब्ल्यू ० एन०, पु०नि०, पृ० ४१-४४
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