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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
अस्विका नहीं है। लांछन भी नहीं उत्कीर्ण है।' परिकर में चार छोटी जिन मूर्तियां भी बनी हैं। सहेठ-महेठ (गोंडा) से प्राप्त समान विवरणों वाली दूसरी मूर्ति (जे ८५८) में लांछन उत्कीर्ण है और यक्षी भी अम्बिका है। ११५१ ई० की एक मूर्ति (०.१२३) में नेमि के कंधों पर जटाएं भी प्रदर्शित हैं ।
पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा में दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० को दो मूर्तियां हैं। मथुरा से मिली दसवीं शती ई० की एक मति (३७.२७३८) में ध्यानमुद्रा में विराजमान नेमि के साथ लांछन और यक्ष-यक्षी नहीं उत्कीर्ण हैं। पर पाश्वों में बलराम एवं कृष्ण की मूर्तियां बनी हैं। वनमाला से शोभित चतुर्भुज बलराम त्रिभंग में खड़े हैं। उनके तीन हाथों में चषक, मुसल और हल हैं, और चौथा हाथ जानु पर स्थित है। वनमाला से युक्त कृष्ण समभंग में खड़े हैं। उनके तीन सुरक्षित करों में से दो में वरदमुद्रा और गदा प्रदर्शित हैं और तीसरा जानु पर स्थित है । दूसरी मूर्ति (बी ७७) में लांछन उत्कीर्ण है पर यक्ष-यक्षी अनुपस्थित हैं। मूलनायक के कन्धों पर जटाएं हैं।
देवगढ में दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की ३० से अधिक मूर्तियां हैं। अधिकांश उदाहरणों में नेमि प्रतिहार्यों. शंख लांछन और पारम्परिक यक्ष-यक्षी से युक्त हैं। सत्रह उदाहरणों में नेमि कायोत्सर्ग में निर्वस्त्र खडे हैं। दस उदाहरणों में शंख लांछन नहीं उत्कीर्ण है, पर सर्वानुभूति एवं अम्बिका की मूर्तियों के आधार पर नेमि से पहचान सम्भव है। केवल तीन उदाहरणों में यक्षी-यक्षी नहीं निरूपित हैं। कुछ उदाहरणों में परम्परा के विरुद्ध यक्ष को नेमि के बायीं ओर और यक्षी को दाहिनी ओर आमूर्तित किया गया है। मन्दिर २ की दसवीं शती ई० की एक मूर्ति में बलराम और कृष्ण भी आमूर्तित हैं (चित्र २७) ।" मथुरा के बाहर नेमि की स्वतन्त्र मूर्ति में बलराम एवं कृष्ण के उत्कीर्णन का यह सम्भवतः अकेला उदाहरण है। पांच सर्पफणों के छत्र से युक्त द्विभुज बलराम के हाथों में फल और हल हैं। किरीटमुकुट से सज्जित चतुर्भुज कृष्ण की तीन अवशिष्ट भुजाओं में चक्र, शंख और गदा हैं।
उन्नीस उदाहरणों में नेमि के साथ द्विभुज सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं । मन्दिर १६ की दसवीं शती ई० की शंख-लांछन-यक्त एक खड्गासन मूर्ति में यक्ष-यक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी हैं। नेमि की केश रचना भी जटाओं के रूप में प्रदर्शित है। स्पष्टतः कलाकार ने यहां नेमि के साथ ऋषभ की मूर्तियों की विशेषताएं प्रदर्शित की हैं। मूर्ति के परिकर में २४ छोटी जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। सात उदाहरणों में नेमि के साथ सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी भी निरूपित हैं। कई उदाहरणों में मूलनायक के कंधों पर जटाएं प्रदर्शित हैं। मन्दिर १५ को मूर्ति के परिकर में सात, मन्दिर २६ की मति में चार, मन्दिर १२ की चहारदीवारी की दो मूतियों में चार और छह, मन्दिर २१ की मूर्ति में दो, मन्दिर ११ की मति में दस. मन्दिर २० की मूर्ति में चार और मन्दिर ३१ की मूर्ति में दो छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मन्दिर १२ के प्रदक्षिणापथ की ग्यारहवीं शती ई० की कायोत्सर्ग मूर्ति के परिकर में द्विभुज नवग्रहों की भी मूर्तियां हैं।
ल. दसवीं शती ई० की दो मूर्तियां ग्यारसपुर के मालादेवी मन्दिर में हैं । नेमि के लांछन दोनों उदाहरणों में नहीं उत्कीर्ण हैं पर यक्ष यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । एक मूर्ति के परिकर में चार और दूसरे में ५२ छोटी जिन मूर्तियां
१ सर्वानूभूति यक्ष के आधार पर प्रस्तुत मूर्ति की सम्भावित पहचान नेमि से की गई है। एक अन्य मूर्ति (जे ७९२) ___ में भी लांछन और अम्बिका नहीं उत्कीर्ण हैं।। २ मन्दिर १५
३ मन्दिर १२ के प्रदक्षिणापथ, चहारदीवारी और मन्दिर २६ ४ मन्दिर ३, १२, १३, १५ ५ तिवारी, एम०एन०पी', 'ऐन अन्पब्लिश्ड इमेज़ ऑव नेमिनाथ फ्राम देवगढ़', जैन जर्नल, खं० ८, अं० २,
पृ० ८४-८५ ६ मन्दिर १२ की चहारदीवारी, मन्दिर २,११,२०,२१,३०
७ मन्दिर ११,१५,२१,२६,३१ ८ एक में नेमि कायोत्सर्ग में खड़े हैं।
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