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[ जन प्रतिमाविज्ञान
था । "
युद्ध
होने वाले नरसंहार को बचाने के उद्देश्य से भरत एवं बाहुबली ने द्वन्द्वयुद्ध के माध्यम से निर्णय करने का निश्चय किया में विजयश्री बाहुबली को मिली पर उसी समय उनके मन में संसार के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न हुआ, और बाहुबली ने दीक्षा लेकर कठोर तपस्या की । अन्त में बाहुबली को कैवल्य प्राप्त हुआ । कठोर और लम्बी अवधि की तपस्या के कारण बाहुबली के शरीर से माधवी, सर्प एवं वृश्चिक आदि लिपट गये, किन्तु बाहुबली विचलित न होकर तपस्यारत बने रहे । बायीं ओर शरीर से लिपटी माधवी के साथ बाहुबली की कायोत्सर्ग-मुद्रा में तपस्यारत आकृति बनी है । बाहुबली के दोनों और उनकी बहनों, ब्राह्मी और सुन्दरी की मूर्तियां हैं जिनके नीचे 'ब्राह्मी' और 'सुन्दरी' अभिलिखित है । जैन परम्परा के अनुसार ऋषभ के आदेश पर ब्राह्मी और सुन्दरी बाहुबली के समीप गई थीं । ब्राह्मी एवं सुन्दरी के आगमन के बाद ही बाहुबली को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। चौथे आयत में चतुर्भुज गोमुख और चक्रेश्वरी आमूर्तित हैं ।
कुम्भारिया के महावीर मन्दिर की पश्चिमी भ्रमिका (उत्तर से प्रथम ) के वितान पर भी ऋषभ के जीवनदृश्यों के विशद अंकन हैं (चित्र १३) । सम्पूर्ण दृश्य तीन आयतों में विभाजित हैं। पहले आयत में पूर्व की ओर सर्वार्थसिद्ध स्वर्गं का चित्रण है, जिसमें वार्तालाप की मुद्रा में कई आकृतियां उत्कीर्ण हैं । स्मरणीय है कि वज्रनाभ का जीव सर्वार्थसिद्ध स्वर्ग से ही मरुदेवी के गर्भ में आया था। आगे वार्तालाप की मुद्रा में ऋषभ के माता-पिता की आकृतियां हैं। उत्तर में (बायें से) मरुदेवी की शय्या पर लेटी मूर्ति है । आगे १४ मांगलिक स्वप्न और वार्तालाप की मुद्रा में ऋषभ के माता-पिता की मूर्तियां हैं । अन्य दृश्य कुम्भारिया के शान्तिनाथ मन्दिर के समान हैं ।
दूसरे आयत में उत्तर की ओर (बायें से) सेविकाओं से वेष्टित मरुदेवी शिशु के साथ लेटी हैं । नीचे 'ऋषभ जन्म' अभिलिखित है । बायीं ओर नमस्कार मुद्रा में सम्भवतः इन्द्र की मूर्ति उत्कीर्ण है । श्वेतांबर परम्परा में इन्द्र द्वारा मी शिशु को मेरुपर्वत पर ले जाने का उल्लेख है । पूर्व में मेरु पर्वत पर शिशु को इन्द्र की गोद में बैठे दिखाया गया 1 पीछे छत्र लिए एक मूर्ति उत्कीर्ण है । इन्द्र के पार्श्वो में अभिषेक हेतु कलशधारी आकृतियां बनी हैं। दक्षिण में ध्यानस्थ ऋषभ की एक मूर्ति उत्कीर्ण है, जो अपने बायें हाथ से केशों का लुंचन कर रही है। बायीं ओर ऋषभ को कायोत्सर्गमुद्रा में दो वृक्षों के मध्य खड़ा प्रदर्शित किया गया है । समीप ही ऋषभ की एक अन्य कायोत्सर्ग मूर्ति भी उत्कीर्ण है । ये मूर्तियां ऋषभ की तपश्चर्या की सूचक हैं। आगे ऋषभ का समवसरण है। तीसरे आयत में ऋषभ के पारम्परिक यक्ष-यक्षी, गोमुख-चक्रेश्वरी और पांच अन्य देवता निरूपित हैं । लेख में चक्रेश्वरी को 'वैष्णवी देवी' कहा गया है । अन्य मूर्तियां ब्रह्मशान्ति यक्ष, 3, सिंहवाहना अम्बिका, सरस्वती, शान्तिदेवी एवं महाविद्या वैरोट्या की हैं ।
कल्पसूत्र के चित्रों में भी ऋषभ के पंचकल्याणकों के विस्तृत अंकन हैं ।" चित्रों के विवरण कुम्भारिया के शान्तिनाथ एवं महावीर मन्दिरों की दृश्यावलियों के समान हैं । इनमें ऋषभ के विवाह, राज्याभिषेक एवं सिद्ध-पद प्राप्त करने के दृश्य । चतुर्भुज शक्र को ऋषभ का राज्याभिषेक करते हुए दिखाया गया है ।
दक्षिण भारत - इस क्षेत्र में महावीर एवं पार्श्व की तुलना में ऋषभ की मूर्तियां काफी कम हैं । ऋषभ मूर्तियों में जटाओं, वृषभ लांछन, गोमुख चक्रेश्वरी एवं २३ या २४ छोटो जिन मूर्तियों के नियमित अंकन प्राप्त होते हैं ।
१ पउमचरिय ४५४-५५ हरिवंशपुराण ११.९८ - १०२ आदिपुराण, खं० २, ३६.१०६-८५; त्रि०श०पु०च०, खं० १, ५ ७४० - ९८
२ त्रि००पु०च० १.२.४०७-३०
३ चतुर्भुज ब्रह्मशान्ति का वाहन हंस है और करों में वरदमुद्रा, पद्म, पुस्तक एवं जलपात्र हैं ।
४ चतुर्भुजा वैरोट्या के हाथों में खड्ग, सर्प, खेटक एवम् फल प्रदर्शित 1
५ ब्राउन, डब्ल्यू०एन०, ए डेस्क्रिप्टिव ऍण्ड इलस्ट्रेटेड केटलॉग ऑव मिनियेचर पेण्टिग्स ऑव दि जैन कल्पसूत्र, वाशिंगटन, १९३४, पृ० ५०-५३, फलक ३५-३८
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