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जिन-प्रतिमाविज्ञान 1
उदाहरण (के ६६) में चामरधरों के स्थान पर पार्यों में दो कायोत्सर्ग जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। सिंहासन-छोरों पर एवं परिकर में चार अन्य जिन मूर्तियां भी बनी हैं। एक मूर्ति (के २२) में पीठिका पर पांच ग्रहों एवं परिकर में ६ जिनों की मूर्तियां हैं । दो अन्य मूर्तियों (के ४३, के ५९) के परिकर में क्रमशः दो और सात जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।
बिहार-उड़ीसा-बंगाल–राजगिर के सोनभण्डार गुफा में ल० दसवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति है।' पीठिका पर सिंहासन के सूचक सिंहों के स्थान पर दो गज (लांछन) आकृतियां उत्कीर्ण हैं। पीठिका-छोरों पर ध्यानस्थ जिनों की दो मूर्तियां हैं । मूलनायक के पावों में दो चामरधर एवं परिकर में दो उड्डीयमान मालाधर आमूर्तित हैं। अलआरा (मानभूम) से एक कायोत्सर्ग मूर्ति (१०वीं-११वीं शती ई०) मिली है, जो सम्प्रति पटना संग्रहालय (१०६९७) में सुरक्षित है । सिंहासन पर गज लांछन, और परिकर में चामरधर, त्रिछत्र, उड्डीयमान मालाधर, गज, आमलक एवं छोटी जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं । चरंपा (उड़ीसा) से मिली एक ध्यानस्थ मूर्ति (१०वीं-११वीं शती ई०) उड़ीसा राज्य संग्रहालय, भुवनेश्वर में संकलित है। उड़ीसा की नवमुनि, बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में अजित की तीन मूर्तियां हैं। नवमुनि एवं बारभुजी गुफाओं की मूर्तियों के नीचे यक्षियां भी आमूर्तित हैं। बिहार के मानभूम जिलान्तर्गत पालमा से भी अजित की एक कायोत्सर्ग मूर्ति (११वीं शती ई०) मिली है ।" गज लांछन युक्त यह मूर्ति शिखर युक्त मन्दिर में प्रतिष्ठित है।
(३) सम्भवनाथ जीवनवृत्त
. सम्भवनाथ इस अवसर्पिणी के तीसरे जिन हैं। श्रावस्ती के शासक जितारि उनके पिता और सेनादेवी (या सुषेणा) उनकी माता थीं। जैन परम्परा के अनुसार सम्भव के गर्भ में आने के बाद से देश में प्रभूत मात्रा में साम्ब एवं मंग धान्य उत्पन्न हुए, इसी कारण बालक का नाम सम्भव रखा गया। राजपद के उपभोग के बाद सम्भव ने सहस्राम्रवन में दीक्षा ली। १४ वर्षों की कठोर तपःसाधना के बाद श्रावस्ती नगर में शालवृक्ष के नीचे सम्भव को केबल-ज्ञान प्राप्त हआ। निर्वाण इन्होंने सम्मेद शिखर पर प्राप्त किया। प्रारम्भिक मूर्तियां
सम्भव का लांछन अश्व है और यक्ष-यक्षी त्रिमुख एवं दुरितारि हैं। दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम प्रज्ञप्ति है। मर्त अंकनों में सम्भव के पारम्परिक यक्ष-यक्षी का चित्रण नहीं प्राप्त होता । ल० दसवीं शती ई० में सम्भव के अश्व लांछन और यक्ष-यक्षी का अंकन प्रारम्भ हआ।
___सम्भव की प्राचीनतम मूर्ति मथुरा से मिली है और राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे १९) में सुरक्षित है (चित्र १६)। कुषाणकालीन मूर्ति पर अंकित सं० ४८ (=१२६ ई०) के लेख में 'सम्भवनाथ' का नाम उत्कीर्ण है। सम्भव ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। पीठिका पर धर्मचक्र और त्रिरत्न उत्कीर्ण हैं। इस मूर्ति के बाद दसवीं शती ई० के पूर्व की एक भी सम्भव मूर्ति नहीं मिली है। पूर्वमध्ययुगीन मूर्तियां
गुजरात और राजस्थान के जैन मन्दिरों की देवकुलिकाओं की सम्भव मूर्तियां सुरक्षित नहीं हैं । बिहार एवं बंगाल से सम्भव की एक भी मूर्ति नहीं मिली है। उड़ीसा की नवमुनि, बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में सम्भव की तीन ध्यानस्थ मूर्तियां हैं। इनमें से दो उदाहरणों में यक्षियां भी उत्कीर्ण हैं।
१ आकिअलाजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, दिल्ली, चित्र संग्रह १४३१.५५ २ गुप्ता, पी० एल०, दि पटना म्यूजियम कैटलाग ऑव दि एन्टिक्विटीज, पटना, १९६५, पृ० ९० ३ दश, एम० पी, पू०नि०, पृ० ५१-५२
४ कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८१ ५ जै०क०स्था०, खं० २, पृ० २६७
६ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ६८-७१ ७ कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८१
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