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जिन-प्रतिमाविज्ञान ]
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(१८) अरनाथ जीवनवृत्त
अरनाथ इस अवसर्पिणी के अठारहवें जिन हैं। हस्तिनापुर के शासक सुदर्शन उनके पिता और महादेवी (या मित्रा) उनकी माता थीं। गर्भकाल में माता ने रत्नमय चक्र के अर को देखा था, इसी कारण बालक का नाम अरनाथ रखा गया । चक्रवर्ती शासक के रूप में काफी समय तक राज्य करने के पश्चात् अर ने दीक्षा ली और तीन वर्षों की तपस्या के बाद गजपूरम् के सहस्राम्रवन में आम्र वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया। सम्मेद शिखर इनकी भी निर्वाण-स्थली है।" मूर्तियां
श्वेतांबर परम्परा में अर का लांछन नन्द्यावर्त है, और दिगंबर परम्परा में मत्स्य । उनके यक्ष-यक्षी यक्षेन्द्र (या यक्षेश या खेन्द्र) और धारिणी (या काली) हैं। दिगंबर परम्परा में यक्षी तारावती (या विजया) है। शिल्प में अर के पारम्परिक यक्ष-यक्षी का निरूपण नहीं हुआ है। अर की मूर्तियों में सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी के चित्रण दसवीं शती ई० में प्रारम्भ हुए।
पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा में सुरक्षित (१३८८) और मथुरा से ही प्राप्त एक गुप्तकालीन जिन मूर्ति की पहचान डा० अग्रवाल ने अर से की है। सिंहासन पर उत्कीर्ण मीन-मिथुन को उन्होंने मत्स्य लांछन का अंकन माना है। पर हमारी दृष्टि में यह पहचान ठीक नहीं है क्योंकि मीन-मिथुन के खुले मुखों से मुक्तावली प्रसारित हो रही है जो सिंहासन का सामान्य अलंकरण प्रतीत होता है। सहेठ-महेठ (गोंडा) की दसवीं शती ई० की एक मूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे ८६१) में है। इसकी पीठिका पर मत्स्य लांछन और यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। मत्स्य-लांछन-युक्त दो मूर्तियां बारभुजी एवं त्रिशल गुफाओं में भी हैं। 3 बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी भी आमूर्तित है। नवागढ़ (टीकमगढ़) से ११४५ ई० की एक विशाल खड्गासन मूर्ति मिली है। मूर्ति की पीठिका पर मत्स्य लांछन और यक्ष-यक्षी चित्रित हैं। १०५३ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति मदनपुर पहाड़ी के मन्दिर १ में है।' बारहवीं शती ई० की तीन खड्गासन मूर्तियां क्रमशः अहाड़ (११८० ई०), मदनपुर (मन्दिर २, ११४७ ई०) एवं बजरंगगढ़ (११७९ ई०) से मिली हैं। सभी उदाहरणों में अर निर्वस्त्र हैं।
(१९) मल्लिनाथ जीवनवृत्त
मल्लिनाथ इस अवसर्पिणी के उन्नीसवें जिन हैं। मिथिला के शासक कुम्भ उनके पिता और प्रभावती उनकी माता थीं। श्वेतांबर परम्परा के अनुसार मल्लि नारी तीर्थंकर हैं। पर दिगंबर परम्परा में मल्लि को पूरुष तीर्थकर ही बताया गया है । दिगंबर परम्परा में नारी को मुक्ति या निर्वाण की अधिकारिणी ही नहीं माना गया है। इसलिए नारी के तीर्थंकर-पद प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इनकी माता को गर्भकाल में पुष्प शय्या पर सोने का दोहद उत्पन्न हुआ था, इसी कारण बालिका का नाम मल्लि रखा गया। श्वेतांबर परम्परा के अनुसार मल्लि अविवाहिता थीं और दीक्षा के दिन ही उन्हें अशोकवृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हो गया। इनकी निर्वाण-स्थली सम्मेद शिखर है।
१ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० १२२-२४ २ अग्रवाल, वी०एस०, 'केटलाग आव दि मथुरा म्यूजियम', जव्यू०पी०हि सो०, खं० २३, भाग १-२, पृ० ५७ ३ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८२ । ४ जैन, नीरज, 'नवागढ़ : एक महत्वपूर्ण मध्यकालीन जैनतीर्थ', अनेकान्त, वर्ष १५, अं०६, पृ० २७७ ५ कोठिया, दरबारी लाल, 'हमारा प्राचीन विस्मृत वैभव', अनेकान्त, वर्ष १४, अगस्त १९५६, पृ० ३१ ६ जैन, नीरज, 'बजरंगगढ़ का विशद जिनालय', अनेकान्त, वर्ष १८, अं० २, पृ० ६५-६६ ७ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० १२५-३३
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