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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
मूर्तियां
मल्लि का लांछन कलश है और यक्ष-यक्षी कुबेर एवं वैरोट्या (या अपराजिता) हैं। मूर्तियों में मल्लि के यक्ष-यक्षी का चित्रण दुर्लभ है। केवल बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी उत्कीर्ण है। ग्यारहवीं शती ई० से पहले की मल्लि की कोई मूर्ति नहीं मिली है।
ग्यारहवीं शती ई० की एक श्वेतांबर मूर्ति उन्नाव से मिली है और राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे०८८५) में संगृहीत है (चित्र २३)। यह मल्लि की नारी भूति है। ध्यान मुद्रा में विराजमान मल्लि के वक्षःस्थल में श्रीवत्स नहीं उत्कीर्ण है । पर वक्षःस्थल का उभार स्त्रियोचित है और पृष्ठभाग की केशरचना भी वेणी के रूप में प्रदर्शित है । पीठिका पर कलश (?) उत्कीर्ण है। नारी के रूप में मल्लि के निरूपण का सम्भवतः यह अकेला उदाहरण है। घट-लांछन-युक्त दो ध्यानस्थ मूर्तियां बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं मे हैं।' ल० बारहवीं शती ई० की घट-लांछन-युक्त एक ध्यानस्थ मूर्ति तुलसी संग्रहालय, सतना में भी है। कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका १८ में ११७९ ई० की एक मूर्ति है। मति-लेख में मल्लिनाथ का नाम भी उत्कीर्ण है।
(२०) मुनिसुव्रत जीवनवृत्त
मुनिसुव्रत इस अवसर्पिणी के बीसवें जिन हैं। राजगृह के शासक सुमित्र उनके पिता और पद्मावती उनकी माता थीं। गर्भकाल में माता ने सम्यक् रीति से व्रतों का पालन किया, इसी कारण बालक का नाम मुनिसुव्रत रखा गया । राजपद के उपभोग के बाद मुनिसुव्रत ने दीक्षा ली और ११ माह की तपस्या के बाद राजगृह के नीलवन में चम्पक (चंपा) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया। सम्मेद शिखर इनकी निर्वाण-स्थली है। जैन परम्परा के अनुसार राम (पद्म) एवं लक्ष्मण (वासुदेव) मुनिसुव्रत के समकालीन थे। मूर्तियां
मुनिसुव्रत का लांछन कूर्म है और यक्ष-यक्षी वरुण एवं नरदत्ता (बहुरूपा या बहुरूपिणी) हैं। मूर्तियों में मुनिसुव्रत के पारम्परिक यक्ष-यक्षी का अंकन नहीं प्राप्त होता। मुनिसुव्रत की उपलब्ध मूर्तियां ल० नवीं० से बारहवीं शतो ई० के मध्य की हैं। मुनिसुव्रत के लांछन और यक्ष-यक्षी का अंकन ल० दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ।
गुजरात-राजस्थान-ग्यारहवीं शती ई० की एक श्वेतांबर मूर्ति गवर्नमेन्ट सेन्ट्रल म्यूज़ियम, जयपुर में है (चित्र २४)।" इसमें मुनिसुव्रत कायोत्सर्ग में खड़े हैं और आसन पर कूर्म लांछन उत्कीर्ण है । इसमें चामरधरों एवं उपासकों के अतिरिक्त अन्य कोई आकृति नहीं है। कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका २० में ११७९ ई. की एक मूर्ति है। लेख में 'मुनिसुव्रत' का नाम उत्कीर्ण है। यहां यक्ष-यक्षी नहीं बने हैं। दो मूर्तियां विमलवसही को देवकुलिका ११ (११४३ ई०) और ३१ में हैं। दोनों उदाहरणों में लेखों में मुनिसुव्रत का नाम और यक्ष-यक्षी रूप में सर्वानुभूति एवं अम्बिका उत्कीर्ण हैं । देवकुलिका ३१ की मूर्ति में मूलनायक के पाश्वर्यों में दो खड्गासन जिन मूर्तियां भी बनी हैं जिनके ऊपर दो ध्यानस्थ जिन आमूर्तित हैं ।
१ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८२ २ जैन, जे०, 'तुलसी संग्रहालय का पुरातत्व', अनेकान्त, वर्ष १६, अं० ६, पृ० २८० ३ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० १३४-३५ ४ राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे २०) में १५७ ई० की एक मुनिसुव्रत मूर्ति की पीठिका सुरक्षित है : शाह, यू०पी०, ___ 'बिगिनिंग्स ऑव जैन आइकानोग्राफी', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० ५ ५ अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्र संग्रह १५७.७७
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