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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
इनके अविवाहित-रूप में दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है। इन्होंने राजपद भी नहीं ग्रहण किया था। दीक्षा के बाद एक माह की तपस्या के उपरान्त इन्हें चम्पा के उद्यान में पाटल वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ। चम्पा इनकी निर्वाणस्थली भी है।
मूर्तियां
वासुपूज्य का लांछन महिष है और यक्ष-यक्षी कुमार एवं चन्द्रा (या चण्डा या अजिता) हैं। दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम गान्धारी है। ल० दसवीं शती ई० में मूर्तियों में वासुपूज्य के साथ लांछन और यक्ष-यक्षी का उत्कीर्णन प्रारम्भ हआ, किन्तु यक्ष-यक्षी पारम्परिक नहीं थे।
ल० दसवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति शहडोल (म० प्र०) से मिली है (चित्र १७)। इसकी पीठिका पर महिष लांछन और यक्ष-यक्षी, तथा परिकर में २३ छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। दो मूर्तियां बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में हैं। बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी भी आमूर्तित है । विमलवसही की देवकुलिका ४१ में ११८८ ई० की एक मूर्ति है जिसके लेख में वासुपूज्य का नाम उत्कीर्ण है। यक्ष-यक्षी के रूप में सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं। कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका १२ में भी एक मूर्ति है । इसके १२०२ ई० के लेख में वासुपूज्य का नाम उत्कीर्ण है। मर्ति में चामरधरों के स्थान पर दो खड्गासन जिन मूर्तियां बनी हैं।
(१३) विमलनाथ जीवनवृत्त
विमलनाथ इस अवसर्पिणी के तेरहवें जिन हैं। कपिलपुर के शासक कृतवर्मा उनके पिता और श्यामा उनकी माता थीं। जैन परम्परा के अनुसार गर्भकाल में माता तन-मन से निर्मल बनी रहीं, इसी कारण बालक का नाम विमलनाथ रखा गया । राजपद के उपभोग के बाद विमल ने सहस्राम्रवन में दीक्षा ली और दो वर्षों की तपस्या के बाद कपिलपुर (सहेतुक वन) के उद्यान में जम्बू वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया । सम्मेद शिखर इनकी निर्वाण-स्थली है।" मूर्तियां
विमल का लांछन वराह है और यक्ष-यक्षी षण्मुख एवं विदिता (या वैरोटया) हैं। शिल्प में विमल के पारम्परिक यक्ष-यक्षी कभी नहीं निरूपित हुए। नवीं शती ई० में मूर्तियों में जिन के लांछन और ग्यारहवीं शती ई० में यक्ष-यक्षी का चित्रण प्रारम्भ हुआ।
नवीं शती ई० की एक मूर्ति वाराणसी से मिली है जो सारनाथ संग्रहालय (२३६) में सुरक्षित है (चित्र १८)। विमल कायोत्सर्ग-मद्रा में साधारण पीठिका पर निर्वस्त्र खड़े हैं। पीठिका पर लांछन उत्कीर्ण है। पार्श्ववर्ती चामरधरों के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक आकृति नहीं है। १००९ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ में है । बटेश्वर (आगरा) से मिली इस मूर्ति में विमल निर्वस्त्र हैं । सिंहासन पर लांछन और सामान्य लक्षणों वाले द्विभुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। यक्ष-यक्षी के करों में अभयमुद्रा और घट प्रदर्शित हैं। अलुआरा से प्राप्त ल० ग्यारहवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति पटना संग्रहालय (१०६७४) में सुरक्षित है। लांछन युक्त दो मूर्तियां बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में हैं ।
१ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ९९-१०१ २ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडोज, वाराणसी, चित्र संग्रह ५९.३४, १०२.६ ३ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३१; कुरेशी, मुहम्मद हमोद, पू०नि०, पृ० २८१। ४ त्रिश०पु०च० ४.३.४८
५ हस्तीमल, पू०नि०, १० १०२-०४ ६ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्र संयह ७.८९ ७ प्रसाच, एच०के०, पू०नि०, पृ० २८८ ८ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३१; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८१
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