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उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण ]
गोमुख एवं चक्रेश्वरी निरूपित हैं। देवकुलिका २० में एक जिन समवसरण भी सुरक्षित है। भ्रमिका के वितानों पर जिनों के जीवनदृश्य उत्कीर्ण हैं । देवकुलिका ९ और १६ के वितानों पर जिनों के पंचकल्याणकों के अंकन हैं। पर इनमें जिनों की पहचान सम्भव नहीं है । देवकुलिका १० के वितान पर नेमि और देवकूलिका १२ के वितान पर शान्ति के जीवनदृश्य उत्कीर्ण हैं । बारहवीं शती ई० के एक पट्ट पर १७० जिन आकृतियां बनीं हैं।
__ अन्य श्वेताम्बर स्थलों के समान ही विमलवसही में भी महाविद्याओं का चित्रण ही सर्वाधिक लोकप्रिय था। यहां १६ महाविद्याओं के सामूहिक अंकन के दो उदाहरण हैं। एक उदाहरण रंगमण्डप में और दूसरा देवकुलिका ४१ के वितान पर है। रंगमण्डप के १६ महाविद्याओं के निरूपण में पारम्परिक वाहन एवं आयुध प्रदर्शित हैं। महाविद्याएं दोनों उदाहरणों में त्रिभंग में खड़ी हैं। रंगमण्डप के उदाहरण में महाविद्याएं चतुर्भुज और देवकुलिका ४१ के उदाहरण में षड्भुज हैं। रंगमण्डप की कुछ महाविद्याओं के निरूपण में हिन्दू देवकूल के मुति-वैज्ञानिक-तत्वों का अनुकरण किया गया है। प्रज्ञप्ति की भुजा में शक्ति के स्थान पर कुक्कुट का प्रदर्शन हिन्दू कौमारी का प्रभाव है ।२ गौरी का वाहन गोधा के स्थान पर वृषभ है जो हिन्दू शिवा का प्रभाव है । अप्रतिचक्रा की केवल दो भुजाओं में चक्र, महाकाली के वाहन के रूप में नर के स्थान पर हंस, महाज्वाला के साथ बिडाल या शूकर के स्थान पर सिंहवाहन, काली की भुजा में पुस्तक, गांधारी की भुजा में पाश, और मानसी के वाहन के रूप में हंस के स्थान पर मेष के चित्रण कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनका जैन ग्रन्थों में उल्लेख नहीं मिलता। अच्छुप्ता की भुजाओं में खड्ग और फलक भी नहीं प्रदर्शित हैं।
देवकुलिका ४१ की षड्भुज महाविद्याओं को मध्य की दो भुजाओं से सामान्यतः ज्ञानमुद्रा व्यक्त है, और उनकी निचली भुजाओं में वरदमुद्रा और फल (या कमण्डलु) हैं । इस प्रकार महाविद्याओं के विशिष्ट आयुध केवल दो ऊपरी भुजाओं में ही प्रदर्शित हैं। इनमें वाहन भी नहीं उत्कीर्ण हैं । रंगमंडप की महाविद्याओं और देवकुलिका४१ की महाविद्याओं के मूर्ति लक्षणों में पर्याप्त अन्तर दृष्टिगत होता है । यहां अप्रतिचक्रा की दो मूर्तियां हैं। एक में ऊपरी भुजाओं में चक्र, एवं दूसरे में गदा और चक्र हैं । अंकुश-पाश, त्रिशूल-चक्र, वीणा-पुस्तक एवं सूक-पुस्तक धारण करने वाली चार महाविद्याओं की पहचान सम्भव नहीं है। केवल रोहिणी, वज्रांकुशा, अप्रतिचक्रा, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, पुरुषदत्ता, गौरी, मानवी एवं महाकाली महाविद्याओं की ही पहचान सम्भव है । महाविद्याओं के सामूहिक अंकनों के अतिरिक्त उनकी अनेक स्वतन्त्र मूर्तियां भी हैं। इनमें मुख्यतः रोहिणी, अप्रतिचक्रा,वज्रांकुशा, वज्रशृङ्खला, वैरोट्या, पुरुषदत्ता, अच्छुप्ता एवं महामानसी की मूर्तियां हैं। मानवी, गौरी, गांधारी एवं मानसो को केवल कुछ ही मूर्तियां हैं। षोडशभुज रोहिणी (देवकुलिका ११), अच्छुप्ता (देवकुलिका ४३), वैरोट्या (देवकुलिका ४९) एवं विंशतिभुज महामानसी (देवकुलिका ३९) की मूतियां लाक्षणिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं।
महाविद्याओं के अतिरिक्त अम्बिका, सरस्वती, शान्तिदेवी एवं महालक्ष्मी की भी अनेक मूर्तियां हैं । सिंहवाहना अम्बिका की द्विभुज और चतुर्भुज मूर्तियां हैं (चित्र ५४) । हंसवाहना सरस्वती की भुजाओं में वरदाक्ष (कमण्डलु), सनालपद्म, पुस्तक और वीणा (या स्रक) हैं। सरस्वती की एक षोडशभुज मूर्ति देवकुलिका ४४ के वितान पर है । महालक्ष्मी सर्वदा ध्यानमुद्रा में विराजमान है और उसके शीर्ष भाग में दो गजों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। देवी की निचली भुजाएं गोद में हैं और ऊपरी भुजाओं में पद्म प्रदर्शित हैं। देवी के पद्मासन पर कभी-कभी नवनिधि के सूचक नौ घट उत्कीर्ण हैं।
१ रंगमण्डप को महाविद्याओं के निरूपण में गुख्यतः निर्वाणलिका के निर्देशों का पालन किया गया है। २ विमलवसही की ही कुछ मूर्तियों में प्रज्ञप्ति के दोनों हाथों में शूल भी प्रदर्शित है। ३ रंगमण्डप से सटे वितान पर वैरोट्या की एक विशिष्ट मूर्ति है। सहस्रफण पार्श्व मूर्ति के समान ही इसमें भी
वैरोट्या चारों ओर सर्प की कुण्डलियों से वेष्टित है । उसके हाथों में खड्ग, सर्प, खेटक और सर्प हैं । ४ अच्छुप्ता की भुजाओं में खड़ग और खेटक के स्थान पर धनुष और बाण हैं। ५ शान्तिदेवी की सर्वाधिक मूर्तियां हैं।
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