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उत्तर भारत के जैन मूति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण ]
मुद्रा में साधारण पीठिका या सिंहासन पर प्रातिहार्यों एवं लांछनों के साथ खड़े हैं। कुछ उदाहरणों में (मन्दिर १,१९,२८, ल० ११वीं-१२वीं शती ई०) में यक्ष-यक्षी यगल भी चित्रित हैं। मन्दिर १ और २ की ल० ग्यारहवीं शती ई० की दो त्रितीर्थी मूर्तियों में जिनों के साथ क्रमशः सरस्वती और बाहुबली की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं (चित्र ६५, ७५) १ जिन चौमुखी मूर्तियों में सामान्यतः केवल दो ही जिनों को पहचान क्रमशः ऋषभ एवं पार्श्व (या सुपार्श्व) से सम्भव है । केवल एक चौमुखी (मन्दिर २६) में वृषभ, कपि, अर्धचन्द्र एवं मृग लांछनों के आधार पर सभी जिनों की पहचान सम्भव है। दो उदाहरणों (मन्दिर १२ की पश्चिमी चहारदीवारी) में चारों जिनों के साथ यक्ष-यक्षी भी आमूर्तित हैं। स्थानीय साह जैन संग्रहालय में एक जिन चौबीसी पद भी है। पट्ट की २४ जिन मूर्तियां लांछनों, अष्ट-प्रातिहार्यों एवं यक्ष-यक्षी यगलों से यक्त हैं । मन्दिर ५ में १००८ जिनों का चित्रण करने वाली एक विशाल प्रतिमा (११वीं शती ई०) है।
ऋषभ पत्र बाइबली की छह मूर्तियां (१० वीं-१२ वीं शती ई०) हैं (चित्र ७४, ७५) २ बाहबली कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं और उनकी भुजाओं, चरणों एवं वक्षस्थल से माधवी लिपटो है। शरीर पर वश्चिक एवं सर्प आदि जन्तु भी उत्कीर्ण हैं । ऋषभ पुत्र भरत चक्रवर्ती की भी चार (१० वीं-१२ वीं शती ई०) मूर्तियां हैं (चित्र ७०)। इनमें मरत कायोत्सर्ग में खड़े हैं और उनके आसन पर गज एवं अश्व आकृतियां, और पाश्वों में कुबेर, नवनिधि के सूचक नववट एवं चक्रवर्ती के अन्य लक्षण (चक्र, वज्र, खड्ग) चित्रित हैं।
यक्षियों में अम्बिका सर्वाधिक लोकप्रिय थी। उसकी ५० से भी अधिक मूर्तियां मिली हैं (चित्र ५१)। अम्बिका के बाद सर्वाधिक मूर्तियां चक्रेश्वरी की हैं। चक्रेश्वरी की चतुर्भुज से विशतिभुज मूर्तियां हैं (चित्र ४५. ४६)। रोहिणी. पद्मावती एवं सिद्धायिका (मन्दिर ५, उत्तरंग) यक्षियों और सरस्वती एवं लक्ष्मी की भी कई मूर्तियां हैं (चित्र ४७.६५) । मन्दिर १२ के अर्धमण्डप के स्तम्भ (९वीं शती ई०) पर ब्रह्मशान्ति यक्ष (या अग्नि) की एक चतुर्भुज मूर्ति है। देवता की भुजाओं में अभयमुद्रा, सुक, पुस्तक एवं कलश प्रदर्शित हैं। यहां क्षेत्रपाल (६) और कुबेर (? मन्दिर ८) की भी मतियां हैं। मन्दिर १२ के प्रवेश-द्वार पर १६ मांगलिक स्वप्न उत्कीर्ण हैं। मन्दिर ५, १२ और ३१ के प्रवेश-द्वारों, स्वतन्त्र उत्तरंगों एवं जिन मूर्तियों पर नवग्रहों की आकृतियां बनी हैं। द्वारशाखाओं पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की मूर्तियां हैं। जैन युगलों की ४० मूर्तियां हैं, जिनमें पुरुष एवं स्त्री दोनों की एक भुजा में बालक, और दूसरे में पुष्प (या फल या कोई मुद्रा) प्रदर्शित हैं । मन्दिर ४ और ३० में जिनों की माताओं की दो मूर्तियां (११ वीं शती ई०) हैं। देवगढ़ में जैन आचार्यों का चित्रण विशेष लोकप्रिय था। स्थापना के समीप विराजमान जैन आचार्यों की दाहिनी भुजा से व्याख्यान-(या ज्ञान-या-अभय-) मुद्रा व्यक्त है और बायीं में पुस्तक है।
देवगढ़ के मन्दिर १८ की द्वारशाखाओं पर जैन-परम्परा-विरुद्ध कुछ चित्रण हैं। मयूर पीचिका से युक्त एक नग्न जैन साधु को एक स्त्री के साथ आलिंगन की मुद्रा में दिखाया गया है।
देवगढ़ के अतिरिक्त मदनपुर, दुदही, चांदपुर एवं सिरोनी खुर्द आदि स्थलों से भी ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की जैन मूर्तियां मिली हैं। इन स्थलों से मुख्यतः ऋषम, पाश्र्व, शान्ति, सम्भव, चन्द्र प्रभ, चक्रेश्वरी, अम्बिका, सरस्वती एवं क्षेत्रपाल की मूर्तियां मिली हैं।
१ तिवारी, एम० एन० पी०, 'ए यूनीक त्रि-तीर्थिक जिन इमेज फ्राम देवगढ़', ललितकला, अं० १७, पृ० ४१-४२;
'ए नोट आन सम बाहुबली इमेजेज फाम नार्थ इण्डिया', ईस्ट वे०, खं० २३, अं० ३-४, पृ० ३५२-५३ २ तिवारी, एम०एन०पी०, 'बाहुबली', पू०नि०, पृ० ३५२-५३ ३ जिन मूर्तियों के समान ही बाहुबली के साथ भी अष्ट-प्रातिहार्य और यक्ष-यक्षी युगल (मन्दिर २, ११) प्रदर्शित हैं। ४ १०वीं-११वीं शती ई० को दो मूर्तियां मन्दिर २ और १, एवं एक मूर्ति मन्दिर १२ की चहारदीवारी पर हैं। ५ शास्त्री, परमानन्द जैन, 'मध्य भारत का जैन पुरातत्व', अनेकान्त, वर्ष १९, अं०१-२, पृ० ५७-५८; बुन, क्लाज,
'जैन तीर्थज़ इन मध्य देश : दुदही, चांदपुर', जैनयुग, वर्ष १, नवम्बर १९५८, पृ० २९-३३, वर्ष २, अप्रैल १९५९, पृ० ६७-७०
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