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उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण 1
से ११ वीं शती ई०) में ऋषभ एवं पार्श्व की सर्वाधिक मूर्तियां हैं । अकोटा से अम्बिका, सर्वानुभूति, सरस्वती एवं अच्छुता विद्या की भी मूर्तियां मिली हैं। थान (सौराष्ट्र) में दसवीं - ग्यारहवीं शती ई० के दो जैन मन्दिर एवं जिन और अम्बिका की मूर्तियां हैं । घोघा (भावनगर) से ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की कई जैन मूर्तियां मिली हैं । अहमदाबाद से भी कुछ जैन मूर्तियां मिली हैं जिनमें थराद (थारापद्र) की १०५३ ई० की अजित मूर्ति मुख्य है । 3 वड्नगर और सेजकपुर में दसवींग्यारहवीं शती ई० के जैन मन्दिर हैं । कुंभारिया एवं तारंगा में ग्यारहवीं से तेरहवीं शती ई० के जैन मन्दिर हैं, जिनकी शिल्प सामग्री का यहां कुछ विस्तार से उल्लेख किया जायगा । गिरनार एवं शत्रुंजय पहाड़ियों पर कुमारपाल के काल के नेमिनाथ एवं आदिनाथ मन्दिर हैं । भद्रेश्वर (कच्छ) में जगदु शाह के काल का बारहवीं शती ई० का एक जैन मन्दिर है । कुंभारिया
कुंभारिया गुजरात के बनासकांठा जिले में स्थित है। यहां चौलुक्य शासकों के काल के ५ श्वेताम्बर जैन मंदिर हैं | ये मन्दिर (११ वीं - १३ वीं शती ई० ) सम्भव, शान्ति, नेमि, पार्श्व एवं महावीर को समर्पित हैं । यहां महाविद्याओं, सरस्वती, महालक्ष्मी एवं शान्तिदेवी का चित्रण सर्वाधिक लोकप्रिय था । महाविद्याओं में रोहिणी, अप्रतिचक्रा, अच्छुप्ता एवं वैरोट्या सर्वाधिक, और मानवी, गान्धारी, काली, सर्वास्त्रमहाज्वाला एवं मानसी अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय थीं । सर्वानुभूति - अम्बिका सर्वाधिक लोकप्रिय यक्ष-यक्षी युगल था । गोमुख चक्रेश्वरी एवं धरणेन्द्र - पद्मावती की भी कुछ मूर्तियां हैं । इनके अतिरिक्त ब्रह्मशान्ति यक्ष, गणेश, जिनों के जीवनदृश्य और २४ जिनों के माता-पिता भी निरूपित हुए ।" प्रत्येक मन्दिर की शिल्प सामग्री संक्षेप में इस प्रकार है :
शान्तिनाथ मन्दिर — देवकुलिका ९ की जिन मूर्ति के वि० सं० १११० ( = १०५३ ई०) के लेख से शांतिनाथ मन्दिर कुमारिया का सबसे प्राचीन मन्दिर सिद्ध होता है । पर इस मन्दिर की चार जिन मूर्तियों के वि० सं० ११३३ के लेख के आधार पर इसे १०७७ ई० में निर्मित माना गया है । १६ देवकुलिकाओं और ८ रथिकाओं सहित मन्दिर चतुर्विंशति जिनालय है । अधिकांश देवकुलिकाओं की जिन मूर्तियों में मूलनायक की मूर्ति खण्डित है । जिन मूर्तियों में परि
कर की आकृतियों एवं यक्ष-यक्षी के चित्रण में विविधता का अभाव और एकरसता दृष्टिगत होती है ।
मूलनायक के पावों में चामरघर सेवक या कायोत्सर्गं में दो जिन आमूर्तित हैं। पार्श्ववर्ती जिन आकृतियां या तो लांछन रहित हैं, या फिर पांच और सात सर्पफणों के छत्र से युक्त सुपार्श्व और पार्श्व की हैं । परिकर में भी कुछ लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं । पार्श्ववर्ती आकृतियों के ऊपर वेणु और वीणा वादन करती दो आकृतियां हैं । मूलनायक के शीर्ष भाग में त्रिछत्र, कलश और नमस्कार- मुद्रा में एक मानव आकृति | मानव आकृति के दोनों ओर वाद्य वादन करती (मुख्यत: दुन्दुभि) और गोमुख आकृतियां निरूपित हैं । परिकर में दो गज भी उत्कीर्ण हैं जिनके शुण्ड में कभी-कभी अभिषेक हेतु कलश प्रदर्शित हैं । सिंहासन के मध्य में चतुर्भुज शान्तिदेवी निरूपित हैं जिसके दोनों ओर दो गज और सिंहासन की सूचक दो सिंह आकृतियां उत्कीर्ण हैं । शान्तिदेवी की आकृति के नीचे दो मृगों से वेष्टित धर्मचक्र उत्कीर्ण है ।
१ शाह, यू०पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, पृ० ३०-३१, ३३-३४, ३६-३७, ४३, ४६, ४८, ४९, ५२
२ इण्डियन आकिअलाजी-ए रिव्यू, १९६१-६२, पृ० ९७
३ मेहता, एन० सी०, 'ए मेडिवल जैन इमेज ऑव अजितनाथ - १०५३ ए० डी०', इण्डि० एन्टि०, खं०५६, पृ०७२-७४ ४ तिवारी, एम० एन०पी०, 'ए ब्रीफ सर्वे ऑव दि आइकनोग्राफिक डेटा ऐट कुंभारिया, नाथं गुजरात', संबोधि खं २, अं० १, पृ० ७-१४
५ जिनों के जीवनदृश्यों एवं माता-पिता के सामूहिक अंकन के प्राचीनतम उदाहरण कुंभारिया मन्दिर में हैं ।
६ सोमपुरा, कान्तिलाल फूलचन्द, दि स्ट्रक्चरल टेम्पल्स ऑव गुजरात, अहमदाबाद, १९६८, पृ० १२९
७ शान्तिदेवी वरदमुद्रा, पद्म, पद्म ( या पुस्तक) और फल ( या कमण्डलु ) से युक्त हैं ।
८. खजुराहो की दो जिन मूर्तियों (मन्दिर १ और २) में भी सिंहासन के मध्य में शान्तिदेवी निरूपित हैं ।
९ सिंहासन पर दो गजों, मृगों एवं शान्तिदेवी, तथा परिकर में वाद्य वादन करती और गोमुख आकृतियों के चित्रण गुजरात - राजस्थान की वेताम्बर जिन मूर्तियों में ही प्राप्त होते हैं ।
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