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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
६५५२ ) की पहचान एच० के० प्रसाद ने भामण्डल के ऊपर अंकित अर्धचन्द्र के आधार पर चन्द्रप्रभ से की है जो दो कारणों से ठीक नहीं प्रतीत होती । प्रथम, शीर्षभाग में जिन लांछन के अंकन की परम्परा अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त होती । दूसरे, जिनों के साथ लटकती जटाएं प्रदर्शित हैं जो उनके ऋषभ होने की सूचक हैं ।
तरका
राजघाट (वाराणसी) से ल० सातवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ जिन मूर्ति मिली है, जो भारत कला भवन, वाराणसी (२१२) में संगृहीत है ( चित्र २६ ) । मूर्ति के सिंहासन के नीचे एक वृक्ष ( कल्पवृक्ष) उत्कीर्ण है जिसके दोनों ओर द्विभुज यक्ष-यक्षी की मूर्तियां हैं। वाम भुजा में बालक से युक्त यक्षी अम्बिका है । 3 यक्षी अम्बिका की उपस्थिति के आधार पर जिन की सम्भावित पहचान नेमि से की जा सकती है । देवगढ़ के मन्दिर २० के समीप से ल० सातवीं शती ई० की एक जिन मूर्ति मिली है। राजस्थान के सिरोही जिले के वसंतगढ़, नंदिय मन्दिर (महावीर मन्दिर) एवं भटेवा (पार्श्व मूर्ति) से भी सातवीं शती ई० की जैन मूर्तियां मिली हैं। रोहतक ( दिल्ली के समीप ) से मिली पार्श्व की श्वेताम्बर मूर्ति भो ल० सातवीं शती ई० की है ।"
द्वितीय अध्याय के समान प्रस्तुत अध्याय में किया गया है ।
गुजरात
( २ )
मध्य युग (ल० ८वीं शती ई० से १२वीं शती ई० तक)
धांक (सौराष्ट्र) की दिगम्बर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं ।
गुजरात के सभी क्षेत्रों से जैन स्थापत्य एवं मूर्तिविज्ञान के अवशेष प्राप्त होते हैं । कुम्भारिया एवं तारंगा के जैन मन्दिरों की शिल्प सामग्री प्रस्तुत अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्व की है। गुजरात की जैन शिल्प सामग्री श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है । दिगम्बर मूर्तियां केवल धांक से ही मिली हैं। गुजरात की जैन मूर्तियों में जिन मूर्तियों की संख्या सबसे अधिक है । ऋषभ एवं पार्श्व की मूर्तियां सर्वाधिक हैं । मन्दिरों में २४ देवकुलिकाओं को संयुक्त करने की परम्परा थी जो निश्चित ही २४ जिनों की अवधारणा से प्रभावित थी । जिनों के जीवनदृश्यों एवं समवसरणों का चित्रण विशेष लोकप्रिय था । जिनों के बाद लोकप्रियता के क्रम में महाविद्याओं का दूसरा स्थान है । यक्ष यक्षी युगलों में सर्वानुभूति एवं अम्बिका सर्वाधिक लोकप्रिय थे। अधिकांश जिनों के साथ यही यक्ष-यक्षी युगल निरूपित है । गोमुख - चक्रेश्वरी एवं धरणेन्द्र - पद्मावती यक्ष-यक्षी युगलों की भी कुछ मूर्तियां मिली हैं। सरस्वती, शान्तिदेवी, ब्रह्मशान्ति यक्ष, गणेश (चित्र ७७) अष्ट-दिक्पाल, क्षेत्रपाल एवं २४ जिनों के माता-पिता की भी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं ।
भी जैन मूर्ति अवशेषों का अध्ययन आधुनिक राज्यों के अनुसार
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जैन गुफाओं में ल० आठवीं शती ई० की ऋषभ, शान्ति, पार्श्व एवं महावीर जिनों को पार्श्व के साथ यक्ष-यक्षी कुबेर एवं अम्बिका हैं । अकोटा की जैन कांस्य मूर्तियों (ल० छठीं
१ वही, पृ० २८३
२ तिवारी, एम० एन० पी०, 'ए नोट आन दि आइडेन्टिफिकेशन ऑव ए तीर्थंकर इमेज ऐट भारत कला भवन, वाराणसी', जैन जर्नल, खं० ६, अं० १, पृ० ४१-४३
३ अम्बिका की भुजा में आम्रलुम्बि नहीं प्रदर्शित है । ज्ञातव्य है कि अम्बिका की भुजा में आम्रलुम्बि ८ वीं - ९ वीं शती ई० की कुछ अन्य मूर्तियों में भी नहीं प्रदर्शित है । ४ जि०इ० दे०, पृ० ५२
५ स्ट०जै०आ०, पृ० १६-१७, ढाकी, एम० ए० पू०नि०, पृ० २९३
६ संकलिया, एच०डी०, 'दि अलिएस्ट जैन स्कल्पचसं इन काठियावाड़', ज०रा०ए०सी०, जुलाई १९३८, पृ० ४२६-३० ७ स्ट०जे०आ०, पृ० १७
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