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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
हुईं। इनमें कुषाणकालीन विषय वैविध्य का भी अभाव है । गुप्तकाल में मथुरा में केवल जिनों की स्वतन्त्र एवं कुछ जिन चौमुखी मूर्तियां ही निर्मित हुईं। जिनों के साथ लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों के निरूपण की परम्परा भो गुप्तयुग में ही प्रारम्भ हुई ।
मथुरा
मथुरा में गुप्तकाल में पार्श्व की अपेक्षा ऋषभ की अधिक मूर्तियां उत्कीर्ण हुईं । ऋषभ एवं पार्श्व की पहचान पहले ही की तरह लटकती जटाओं एवं सात सर्पफणों के छत्र के आधार पर की गई है । ऋषभ की जटाएं पहले से अधिक लम्बी हो गईं (चित्र ४) । एक खण्डित मूर्ति ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ८९) में दाहिनी ओर की वनमाला, तथा सर्प फणों एवं हल से युक्त बलराम की मूर्ति के आधार पर जिन की पहचान नेमि से की गई है। एक दूसरी नेमि मूर्ति में भी (राज्य संग्रहालय, लखनऊ - जे १२१ ) बलराम एवं कृष्ण आमूर्तित हैं ( चित्र २५ ) । 3 इस प्रकार गुप्तकाल में मथुरा में केवल ऋषभ, नेमि और पार्श्व की ही मूर्तियां उत्कीर्णं हुईं । पीठिका लेखों में जिनों के नामोल्लेख की कुषाणकालीन परम्परा गुप्तकाल में समाप्त हो गई । जिन मूर्तियां निर्वस्त्र हैं । जिनों की ध्यानस्थ मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से संख्या में अधिक । गुप्तकाल में पार्श्ववर्ती चामरघर सेवकों एवं उड्डीयमान मालाधरों के चित्रण में नियमितता आ गई । अष्ट प्रातिहार्यो
छत्र एवं दिव्यध्वनि के अतिरिक्त अन्य का नियमित चित्रण होने लगा । प्रभामण्डल के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया ।" पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा ( बी ६८ ) में एक जिन चौमुखी भी सुरक्षित है । गुप्तकालीन जिन चौमुखो का यह अकेला उदाहरण है । कुषाणकालीन चौमुखी मूर्ति के समान यहां भी केवल ऋषभ एवं पार्श्व की ही पहचान सम्भव है । राजगिर
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राजगिर ( बिहार ) से ल० चौथी शती ई० की लिपि में लिखे एक लेख में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) का नाम है मध्य में चक्रपुरुष और उसके दोनों ओर शंख उत्कीर्ण हैं । शंख नेमि का लांछन है । अतः मूर्ति नेमि की हैं। का प्रदर्शन करने वाली यह प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति है । शंख लांछन के समीप ही ध्यानस्थ जिनों की दो लघु उत्कीर्ण हैं । राजगिर की तीन अन्य मूर्तियों में जिन कायोत्सर्ग में निर्वस्त्र खड़े हैं । "
विदिशा
चार जिन मूर्तियां मिली हैं। एक मूर्ति की पीठिका पर गुप्त ध्यानमुद्रा में सिंहासन पर विराजमान जिन की पीठिका के जिन लांछन मूर्तियां भी
विदिशा (म०प्र०) से तीन गुप्तकालीन जिन मूर्तियां मिली है, जो सम्प्रति विदिशा संग्रहालय में हैं । इन मूर्तियों के पीठिका - लेखों में महाराजाधिराज रामगुप्त का उल्लेख है जो सम्भवतः गुप्त शासक था । मूर्तियों की निर्माण शैली, लेख की लिपि एवम् 'महाराजाधिराज' उपाधि के साथ रामगुप्त का नामोल्लेख मूर्तियों के चौथी शती ई० में निर्मित होने के समर्थक प्रमाण हैं । ध्यानमुद्रा में सिंहासन पर आसीन जिन आकृतियां पार्श्ववर्ती चामरधरों से वेष्टित हैं । दो मूर्तियों के पीठिका - लेखों में उनके नाम (पुष्पदन्त एवं चन्द्रप्रभ) उत्कीर्ण हैं । इन मूर्ति लेखों से स्पष्ट है कि पीठिका लेखों
१ राजगिर की नेमिनाथ एवं भारत कला भवन, वाराणसी ( १६१ ) की महावीर मूर्तियां
२ अकोटा की ऋषभनाथ मूर्ति
३ श्रीवास्तव, वी० एन० पू०नि०, पृ० ४९-५२ ४ केवल राजगिर की एक जिन मूर्ति में त्रिछत्र उत्कीर्ण है— स्ट०जै०आ०, चित्र ३३
५ इसमें हस्तिनख की पंक्ति, विकसित पद्म, पुष्पलता, पद्मकलिकाएं, मनके एवं रज्जु आदि अभिप्राय प्रदर्शित हैं ।
६ चन्दा, आर० पी०, 'जैन रिमेन्स ऐट राजगिर', आ०स०ई०ए०रि०, १९२५-२६, पृ० १२५-२६, फलक ५६, चित्र ६
७ सिंहासन छोरों या धर्मचक्र के दोनों ओर दो ध्यानस्थ जिनों के चित्रण गुप्तकालीन मूर्तियों में लोकप्रिय थे ।
८ चन्दा, आर० पी० पू०नि०, पृ० १२६, स्ट० जे० आ०, पृ० १४
९ अग्रवाल, आर० सी०, 'न्यूली डिस्कवर्ड स्कल्पचर्स फाम विदिशा', ज०ओ०ई०, खं १८, अं० ३, पृ० २५२-५३
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