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जैन देवकुल का विकास ]
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इसी रूप में स्वीकार कर लिया गया। भगवतीसूत्र ( ५वां अंग ), ' कल्पसूत्र, २ चतुर्विंशतिस्तव ( या लोगस्ससुत्त - मद्रबाहुकृत) उ एवं पउमचरिय में भी २४ जिनों की सूची प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त भगवतीसूत्र में मुनिसुव्रत, नायाधम्मकहाओ में नारी तीर्थंकर मल्लिनाथ" एवं कल्पसूत्र में ऋषभ, नेमि (अरिष्टनेमि), पार्श्व एवं महावीर के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं के विस्तृत उल्लेख हैं । स्थानांगसूत्र ( तीसरा अंग ) में जिनों के वर्णों के सन्दर्भ में पद्मप्रभ, वासुपूज्य, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, अरिष्टनेमि एवं पार्श्व के उल्लेख हैं । समवायांग, भगवती एवं कल्प सूत्रों और चतुविंशतिस्तव जैसे प्रारम्भिक ग्रन्थों में प्राप्त २४ जिनों की सूची के आधार पर यह कहा जा सकता है कि २४ जिनों की सूची ईसवी सन् के प्रारम्भ के पूर्व ही निर्धारित हो चुकी थी ।
प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में जहां २४ जिनों की सूची एवं उनसे सम्बन्धित कुछ अन्य उल्लेख अनेकशः प्राप्त होते हैं, वहीं जिन मूर्तियों से सम्बन्धित उल्लेख केवल राजप्रश्नीय एवं पउमचरिय' में हैं । मथुरा में कुषाण काल में जिन मूर्तियों का निर्माण हुआ । यहां से ऋषभ, १० सम्भव, ११ मुनिसुव्रत, १२ नेमि ३, पार्श्व एवं महावीर १५ जिनों की कुषाणकालीन मूर्तियां प्राप्त होती हैं ( चित्र १६, ३०, ३४) । १६
शलाका-पुरुष
प्रारम्भिक ग्रंथों में २४ जिनों के अतिरिक्त अन्य शलाका १७ ( या उत्तम ) पुरुषों का भी उल्लेख है । जिनों सहित इनकी कुल संख्या तिरसठ है । स्थानांगसूत्र में उल्लेख है कि जम्बूद्वीप में प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी युग में अर्हन्त
२ कल्पसूत्र २, १८४-२०३
१ भगवतीसूत्र २०.८.५८-५९, १६, ५
३ शाह, यू०पी० पू०नि०, पृ० ३
४ पउमचरिय १.१७, ५.१४५-४८ : चंद्रप्रभ एवं सुविधिनाथ की वंदना क्रमशः शशिप्रभ एवं कुसुमदंत नामों से है । ५ ग्रन्थ में १९वें जिन मल्लिनाथ को नारी रूप में निरूपित किया गया है । यह परम्परा केवल श्वेताम्बरों में ही मान्य है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में नारी को कैवल्य प्राप्ति की अधिकारिणी नहीं माना गया है – विण्टरनित्ज, एम० पु०नि०, पृ० ४४७-४८
६ कल्पसूत्र १ - १८३, २०४-२७ : ज्ञातव्य है कि मथुरा के कुषाण शिल्प में कल्पसूत्र में विस्तार से वर्णित ऋषभ, नेमि, पाव एवं महावीर जिनों की ही सर्वाधिक मूर्तियां निर्मित हुईं ।
७ स्थानांगसूत्र ५१
८ शर्मा, आर० सी० पू०नि०, पृ० ४१
९ पउमचरिय ११.२-३, २८.३८-३९, ३३.८९
१० ऋषभ सदैव लटकती केशावलि से शोभित हैं ( कल्पसूत्र १९५ ) । तीन उदाहरणों में मूर्ति लेखों में 'ऋषभ' नाम भी उत्कीर्ण है ।
११ राज्य संग्रहालय, लखनऊ—– जे १९; एक मूर्ति का उल्लेख यू० पी० शाह ने भी किया है, सं०पु०प०, अं०९, पृ०६ १२ राज्य संग्रहालय, लखनऊ— जे २०
१३ चार उदाहरणों में नेमि के साथ बलराम एवं कृष्ण आमूर्तित हैं और एक में ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ८ ) 'अरिष्टनेमि' उत्कीर्ण है ।
१४ पार्श्व सप्त सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं ( पउमचरिय १.६ ) ।
१५ पीठिका लेखों में 'वर्धमान' नाम से युक्त ६ महावीर मूर्तियां राज्य संग्रहालय, लखनऊ में संकलित हैं ।
१६ ज्योतिप्रसाद जैन ने मथुरा से प्राप्त एवं कुषाण संवत् के छठें वर्ष ( = ८४ ई० ) में तिथ्यंकित एक सुमतिनाथ ( ५वें जिन) मूर्ति का भी उल्लेख किया है—जैन, ज्योतिप्रसाद, दि जैन सोर्सेज ऑव दी हिस्ट्री ऑव ऐन्शण्ट इण्डिया, दिल्ली, १९६४, पृ० २६८
१७ वे महान् आत्माएं जिनका मोक्ष प्राप्त करना निश्चित है ।
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