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जैन देवकुल का विकास ]
(द्वारका) नगर के विवरण के सन्दर्भ में प्राप्त होता है, जहां के शासक कृष्ण-वासुदेव थे ।' ग्रन्थ में कृष्ण द्वारा अरिष्टनेि के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने और अरिष्टनेमि की उपस्थिति में ही दीक्षा लेने के उल्लेख हैं ।
गया था ।
लक्ष्मी
इन प्रारम्भिक उल्लेखों से स्पष्ट है कि ईसवी सन् के पूर्व ही कृष्ण-बलराम को जैन धर्म में सम्मिलित कर लिया जैसा पूर्व में उल्लेख है मथुरा की कुछ कुषाणकालीन नेमिनाथ मूर्तियों में भी कृष्ण-बलराम आमूर्तित हैं ।
जिनों की माताओं द्वारा देखे शुभ स्वप्नों के उल्लेख के सन्दर्भ में कल्पसूत्र में श्री लक्ष्मी का उल्लेख है । शीर्ष भाग में दो गजों से अभिषिक्त श्री लक्ष्मी को पद्मासीन और दोनों करों में पद्म धारण किये निरूपित किया गया है । ४ भगवतीसूत्र में एक स्थल पर लक्ष्मी की मूर्ति का उल्लेख है ।" जैन शिल्प में लक्ष्मी का मूर्त चित्रण ल० नवीं शती ई० के बाद ही लोकप्रिय हुआ जिसके उदाहरण खजुराहो, देवगढ़, ओसिया, कुंमारिया, दिलवाड़ा आदि स्थलों से प्राप्त होते हैं । सरस्वती
प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में सरस्वती का उल्लेख मेधा एवं बुद्धि के देवता या श्रुत देवता के रूप में प्राप्त होता है । भगवतीसूत्र एवं पउमचरिय में बुद्धि देवी का उल्लेख श्री, ह्री, धृति, कीर्ति और लक्ष्मी के साथ किया गया है । अंगविज्जा
मेधा एवं बुद्धि के देवता के रूप में सरस्वती का उल्लेख है । जिनों की शिक्षाएं जिनवाणी आगम या श्रुत के रूप में जानी जाती थीं, और सम्भवतः इसी कारण जैन आगमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की भुजा में पुस्तक के प्रदर्शन की परम्परा प्रारम्भ हुई। जैन शिल्प में सरस्वती की प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति कुषाण काल (१३२ ई०) की है, १° जिसमें देवी की एक भुजा में पुस्तक प्रदर्शित है । सरस्वती का लाक्षणिक स्वरूप आठवीं शती ई० के बाद के जैन ग्रन्थों में विवेचित है । जैन शिल्प में यक्षी अम्बिका एवं चक्रेश्वरी के बाद सरस्वती ही सर्वाधिक लोकप्रिय रहीं ।
इन्द्र
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जैन परम्परा में इन्द्र को जिनों का प्रधान सेवक स्वीकार किया गया है । स्थानांगसूत्र में नामेन्द्र, स्थापनेन्द्र, द्रव्येन्द्र, ज्ञानेन्द्र, दर्शनेन्द्र, चारित्रेन्द्र, देवेन्द्र, असुरेन्द्र और मनुष्येन्द्र आदि कई इन्द्रों के उल्लेख हैं । १२ ग्रन्थ में यह भी उल्लेख कि जिनों के जन्म, दीक्षा और कैवल्य प्राप्ति के अवसरों पर देवेन्द्र का शीघ्रता से पृथ्वी पर आगमन होता है । १३ कल्पसूत्र में वज्र धारण करनेवाले और ऐरावत गज पर आरूढ़ शक्र का देवताओं के राजा के रूप में उल्लेख है । १४ पउमचरिय में
१ विण्टरनित्ज, एम० पु०नि०, पृ० ४५०-५१ अन्तगड्बसाओ, सं० एल० डी० बर्नेट, वाराणसी, १९७३ ( पु० मु० ), पृ० १२ और आगे
२ जैकोबी, एच, जैन सूत्रज, भाग १, प्रस्तावना, पृ० ३१, पा० टि० २
३ श्रीवास्तव, वी० एन०, 'सम इन्टरेस्टिंग जैन स्कल्पचर्स इन दि स्टेट म्यूजियम, लखनऊ, ' सं०पु०प०, अं० ९,
पृ० ४५-५२
४ कल्पसूत्र ३७
६ वही, ११.११.४३०
८ अंगविज्जा - एकाणंसा सिरी बुद्धी मेधा कित्ती सरस्वती एवमादीयाओ उवलद्धव्वाओ भवन्ति : अध्याय ५८, पृ० २२३ और ८२
९ जैन, ज्योतिप्रसाद, 'जेनिसिस ऑव जैन लिट्रेचर ऐण्ड दि सरस्वती मूवमेण्ट', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० ३०-३३ १० राज्य संग्रहालय, लखनऊ – जे २४
११ जैन ग्रन्थों में इन्द्र का देवेन्द्र और शक्र नामों से भी उल्लेख है ।
१२ स्थानांगसूत्र . १
१३ वही, सू० १३
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५ भगवतीसूत्र ११.११.४३० ७ पउमचरिय ३.५९
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१४ कल्पसूत्र १४
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