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चतुर्थ अध्याय
उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण
इस अध्याय में उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण किया गया है। इसमें विषय एवं लक्षणों के विकास के अध्ययन की दृष्टि से क्षेत्र तथा काल दोनों की पृष्ठभूमि का ध्यान रखते हुए सभी उपलब्ध स्रोतों का उपयोग किया गया है। कई स्थलों एवं संग्रहालयों को अप्रकाशित सामग्री का निजी अध्ययन भी इसमें समाविष्ट है। इस प्रकार यहां देश और काल के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए उत्तर भारतीय जैन मूर्ति अवशेषों का एक यथासम्भव पूर्ण एवं तुलनात्मक अध्ययन कर जैन प्रतिमा-निरूपण का क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। द्वितीय अध्याय के समान ही यह अध्याय भी दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में प्रारम्भ से सातवीं शती ई० तक और द्वितीय में आठवीं से बारहवीं शती ई० तक के जैन मूर्ति अवशेषों का सर्वेक्षण है । दूसरे भाग में स्थलगत वैशिष्टय एवं मौलिक लाक्षणिक वृत्तियों पर अधिक बल दिया गया है।
आरम्भिक काल (प्रारम्भ से ७ वीं शती ई० तक) मोहनजोदड़ो से प्राप्त ५ मुहरों पर कायोत्सर्ग-मुद्रा के समान ही दोनों हाथ नीचे लटका कर सीधी खड़ी पुरुष भाकृतियां' और हड़प्पा से प्राप्त एक पुरुष आकृति (चित्र १) सिन्धु सभ्यता के ऐसे अवशेष हैं जो अपनी नग्नता और मुद्रा (कायोत्सर्ग के समान) के सन्दर्भ में परवर्ती जिन मूर्तियों का स्मरण दिलाते हैं। किन्तु सिन्धु लिपि के अन्तिम रूप से पढ़े जाने तक सम्भवतः इस सम्बन्ध में कुछ भी निश्चय से नहीं कहा जा सकता है । मौर्य-शुंग काल
प्राचीनतम जिन मूर्ति मौर्यकाल की है जो पटना के समीप लोहानीपुर से मिली है और सम्प्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है (चित्र २)। नग्नता और कायोत्सर्ग-मुद्रा" इसके जिन मूर्ति होने की सूचना देते हैं। मूर्ति के सिर, भुमा और जानु के नीचे का भाग खण्डित हैं । मूर्ति पर मौर्ययुगीन चमकदार आलेप है। लोहानीपुर से शुंग काल या कुछ बाद की एक अन्य जिन मूर्ति भी मिली है जिसमें नीचे लटकती दोनों भुजाएं सुरक्षित हैं।
१ मार्शल, जान, मोहनजोदड़ो ऐण्ड वि इण्डस सिविलिजेशन, खं० १, लंदन, १९३१, फलक १२, चित्र १३, १४,
१८, १९, २२ २ वही, पृ० ४५, फलक १० ३ चंदा, आर० पी०, “सिन्ध फाइव थाऊजण्ड इयर्स एगो', माडर्न रिव्यू, खं०५२, अंक २, पृ० १५१-६०;
रामचन्द्रन, टी० एन०,'हरप्पा ऐण्ड जैनिजम' (हिन्दी अनु०), अनेकान्त, वर्ष १४, जनवरी १९५७, पृ० १५७-६१;
स्ट जै०आ०, पृ० ३-४ ४ जायसवाल, के० पी०, 'जैन इमेज ऑव मौर्य पिरियड', ज०बि०उ०रि०सो०, खं० २३, भाग १, पृ० १३०-३२;
बनर्जी-शास्त्री, ए०, ‘मौर्यन स्कल्पचर्स फ्राम लोहानीपुर, पटना', ज०बि०उ०रि०सो०, खं० २६, भाग २,
पृ० १२०-२४ ५ कायोत्सर्ग-मुद्रा में जिन समभंग में सीधे खड़े होते हैं और उनकी दोनों भुजाएं लंबवत घुटनों तक प्रसारित होती
हैं । यह मुद्रा केवल जिनों के मूर्त अंकन में ही प्रयुक्त हुई है। ६ जायसवाल, के० पी०, पू०नि०, पृ० १३१
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