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जैन देवकुल का विकास ] था' पर जैन ग्रन्थों में दस दिवालों के उल्लेख मिलते हैं। ये दस दिक्पाल इन्द्र (पूर्व), अग्नि (दक्षिण-पूर्व), यम (दक्षिण), नित (दक्षिण-पश्चिम), वरुण (पश्चिम), वायु पश्चिम-उत्तर), कुबेर (उत्तर), ईशान् (उत्तर-पूर्व), ब्रह्मा (आकाश) एवं नागदेव (या धरणेन्द्र-पाताल) हैं । जैन दिक्पालों की लाक्षणिक विशेषताएं काफी कुछ हिन्दू दिक्पालों से प्रभावित हैं। नवग्रह
प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों की सूर्य, चन्द्र, ग्रह आदि ज्योतिष्क देवों की धारणा ही पूर्वमध्य युग में नवग्रहों के रूप में विकसित हई। दसवीं शती ई० के बाद के लगभग सभी प्रतिमा लाक्षणिक ग्रन्थों में नवग्रहों (सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु) के लाक्षणिक स्वरूपों का निरूपण किया गया। पर जैन शिल्प में दसवीं शती ई०२ में ही नवग्रहों का चित्रण प्रारम्भ हुआ जो दिगम्बर स्थलों पर अधिक लोकप्रिय था (चित्र ५७) ।३ जिन मूर्तियों की पीठिका या परिकर में भी नवग्रहों का उत्कीर्णन लोकप्रिय था। क्षेत्रपाल
ल० ग्यारहवीं शती ई० में क्षेत्रपाल को जैन देवकुल में सम्मिलित किया गया । क्षेत्रपाल की लाक्षणिक विशेषताएं जैन दिक्पाल निर्ऋत एवं हिन्दू देव भैरव से प्रभावित हैं। क्षेत्रपाल की मूर्तियां (११वीं-१२वीं शती ई०) केवल खजुराहो एवं देवगढ़ जैसे दिगम्बर स्थलों से ही मिली हैं। ६४-योगिनियां
___ मध्य-युग में हिन्दू देवकुल के समान ही जैन देवकुल में भी ६४-योगिनियों की कल्पना की गयी। ये योगिनियां क्षेत्रपाल की सहायक देवियां हैं। जैन देवकुल के योगिनियों की दो सूचियां बी० सी० भट्टाचार्य ने दी हैं ।" इन सूचियों के कुछ नाम जहां हिन्दू योगिनियों से मेल खाते हैं, वहीं कुछ अन्य केवल जैन धर्म में ही प्राप्त होते हैं। जैन शिल्प में इन्हें कभी लोकप्रियता नहीं प्राप्त हुई । शान्तिदेवी
जैन धर्म एवं संघ की उन्नतिकारिणी शान्तिदेवी की धारणा दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० में विकसित हुई । देवी के प्रतिमा-निरूपण से सम्बन्धित प्रारम्भिक उल्लेख स्तुति चतुर्विशतिका (शोभनसूरिकृत) एवं निर्वाणकलिका में हैं। जैन शिल्प में शान्तिदेवी श्वेताम्बर स्थलों पर ही लोकप्रिय थीं।' गुजरात एवं राजस्थान के श्वेताम्बर स्थलों पर स्वतन्त्र मूर्तियों में और जिन मूर्तियों के सिंहासन के मध्य में शान्तिदेवी आमूर्तित हैं। देवी की दो भुजाओं में या तो पद्म है, या फिर एक में पद्म और दूसरी में पुस्तक है ।
१ शिल्प में नवें-दसवें दिक्पालों, ब्रह्मा एवं धरणेन्द्र के उत्कीर्णन का एकमात्र ज्ञात उदाहरण घाणेराव (१० वीं __ शती ई०) के महावीर मन्दिर पर है। २ खजुराहो के पार्श्वनाथ, देवगढ़ के शान्तिनाथ एवं घाणेराव के महावोर मन्दिरों के प्रवेश-द्वारों पर नवग्रह
निरूपित हैं। ३ नवग्रहों के चित्रण का एकमात्र श्वेताम्बर उदाहरण घाणेराव के महावीर मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर है। .. ४ निर्वाणकलिका २१.२; आचारदिनकर-भाग २, क्षेत्रपाल, पृ० १८० ५ भट्टाचार्य, बी० सी०, पू०नि०, पृ० १८३-८४ ६ स्तुति चतुर्विशतिका १२.४, पृ० १३७ ७ निर्वाणकलिका २१, पृ० ३७ ८ खजुराहो की भी कुछ जिन मूर्तियों में सिंहासन के मध्य में शान्तिदेवी निरूपित हैं। ९ वास्तुविद्या (११वीं-१२वीं शती ई०) में सिंहासन के मध्य में वरदमुद्रा एवं पद्म धारण करनेवाली आदिशक्ति की द्विभुज आकृति के उत्कीर्णन का विधान है (२२.१०)।
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