________________
४६
[ जैन प्रतिमाविज्ञान उड़ीसा की उदयगिरि-खण्डगिरि पहाड़ियों की रानी गुंफा, गणेश गुंफा, हाथी गुंफा एवं अनन्त गुंफा में ई० पू० की दूसरी-पहली शती के जैन कलावशेष हैं। इन गुफाओं में वर्धमानक, स्वस्तिक एवं त्रिरत्न जैसे जैन प्रतीक चित्रित हैं। रानी एवं गणेश गुफाओं में अंकित दृश्यों की पहचान सामान्यत: पावं के जीवन-दृश्यों से की गई है। वी० एस० अग्रवाल इसे वासवदत्ता और शकुन्तला की कथा का चित्रण मानते हैं।
ल० दूसरी-पहली शती ई० पू० की पार्श्वनाथ की एक कांस्य मूर्ति प्रिंस ऑव वेल्स संग्रहालय, बम्बई में सुरक्षित है जिसमें मस्तक पर पांच सर्पफणों के छत्र से युक्त पार्श्व निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं। ल० पहली शती ई०पू० की एक पार्श्वनाथ मूर्ति बक्सर (भोजपुर, बिहार) के चौसा ग्राम से भी मिली है, जो पटना संग्रहालय (६५३१) में संगृहीत है। मूर्ति में पार्श्व सात सर्पफणों के छत्र से शोभित और उपर्युक्त मूर्ति के समान ही निर्वस्त्र एवं कायोत्सर्गमुद्रा में हैं। इन प्रारम्भिक मूर्तियों में वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न नहीं उत्कीर्ण है। जिन मूर्तियों के वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिह्न का उत्कीर्णन ल० पहली शती ई०पू० में मथुरा में ही प्रारम्भ हुआ। लगभग इसी समय मथुरा में जिनों के निरूपण में ध्यानमुद्रा भी प्रदर्शित हुई।
चौसा से शृंगकालीन धर्मचक्र एवं कल्पवृक्ष के चित्रण भी मिले हैं, जो पटना संग्रहालय (६५४०, ६५५०) में सुरक्षित हैं। यू०पी० शाह इन अवशेषों को कुषाणकालीन मानते हैं। इन प्रतीकों से मथुरा के समान ही चौसा में भी शुंग-कुषाणकाल में प्रतीक पूजन की लोकप्रियता सिद्ध होती है।
कुषाण काल
चौसा-चौसा से नौ कुषाणकालीन जिन मूतियां मिली हैं, जो पटना संग्रहालय में हैं । इनमें से ६ उदाहरणों में जिनों की पहचान सम्भव नहीं है । दो उदाहरणों में लटकती जटा (६५३८, ६५३९) एवं एक में सात सर्पफणों के छत्र (६५३३) के आधार पर जिनों की पहचान क्रमशः ऋषभ और पाव से की गई है। सभी जिन मूर्तियां निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग-मुद्रा में हैं।
मथुरा-साहित्यिक और आभिलेखिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मथुरा का कंकाली टीला एक प्राचीन जैन स्तूप था।११ कंकाली टीले से एक विशाल जैन स्तूप के अवशेष और विपुल शिल्प सामग्री मिली है।१२ यह शिल्प सामग्री
१ कुरेशी, मुहम्मद हमीद, लिस्ट ऑव ऐन्शण्ट मान्युमेण्ट्स इन दि प्राविन्स ऑव बिहार ऐण्ड उड़ीसा कलकत्ता, - १९३१, पृ० २४७
२ स्ट००आ०, पृ० ७-८ ३ अग्रवाल, वी० एस०, 'वासवदत्ता ऐण्ड शकुन्तला सीन्स इन दि रानीगुंफा केव इन उड़ीसा', ज०ई०सो०ओ००, खं० १४, १९४६, पृ० १०२-१०९
४ स्ट००आ०, पृ०८-९ ५ शाह, यू० पी०, 'ऐन अर्ली ब्रोन्ज इमेज ऑव पार्श्वनाथ इन दि प्रिंस ऑव वेल्स म्यूजियम, बंबई', बु०नि००__म्यूवे०६०, अं० ३, १९५२-५३, पृ० ६३-६५ ६ प्रसाद, एच० के०, 'जैन ब्रोन्जेज इन दि पटना म्यूजियम', मजे०वि०गो जु०वा०, बंबई, १९६८, पृ० २७५
८०; शाह, यू० पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, बंबई, १९५९, फलक १ बी ७ वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न का उत्कीर्णन जिन मूर्तियों की अभिन्न विशेषता है। ८ प्रसाद, एच० के०, पू०नि०, पृ० २८० : चौसा से कुषाण एवं गुप्तकाल की मूर्तियां भी मिली हैं।
९ शाह, यू० पी०, पू०नि०, फलक ३ १० प्रसाद, एच० के०, पू०नि०, पृ० २८०-८२ ::. ११ विविधतीर्थकल्प, पृ० १७; स्मिथ, वी० ए०, दि जैन स्तूप ऐण्ड अदर एन्टिक्विटीज ऑव मथुरा, वाराणसी,
१९६९, पृ० १२-१३ १२ कनिंघम, ए०, आ०स० इं०रि०, १८७१-७२, खं० ३, वाराणसी, १९६६ (पु०म०), पृ० ४५-४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org