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( जिन), चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव उत्तम पुरुष उत्पन्न हुए । बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव के उल्लेख हैं; पर उत्तम ९ प्रतिवासुदेवों को उत्तम पुरुषों में नहीं सम्मिलित किया गया है का उल्लेख है, किन्तु यहां इनकी संख्या नहीं दी गई है ।
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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
समवायांगसूत्र में २४ जिनों के साथ १२ चक्रवर्ती, ९ पुरुषों की संख्या ६३ के स्थान पर ५४ ही कही गई । कल्पसूत्र में भी तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव एवं वासुदेव
६३ - शलाका-पुरुषों की पूरी सूची सर्वप्रथम पउमचरिय में प्राप्त होती है । इसमें २४ जिनों के अतिरिक्त १२ चक्रवर्ती" (भरत, सागर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुंथु, अर, सुभूम, पद्म, हरिषेण, जयसेन, ब्रह्मदत्त), ९ बलदेव ( अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दन, पद्म या राम, बलराम ), ९ वासुदेव ( त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुष पुण्डरीकं, दत्त, नारायण या लक्ष्मण, कृष्ण ), और ९ प्रतिवासुदेव (अश्वग्रीव, तारक, मेरक, निशुम्भ, मधुकैटभ, बलि, प्रहलाद, रावण, जरासन्ध ) सम्मिलित हैं । इस सूची को ही कालान्तर में बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार किया गया । जैन शिल्प में सभी ६३ - शलाका-पुरुषों का निरूपण कभी भी लोकप्रिय नहीं रहा । कुषाणकालीन जैन शिल्प में केवल कृष्ण और बलराम निरूपित हुए । इन्हें नेमिनाथ के पार्श्वो में आमूर्तित किया गया । मध्ययुग में कृष्ण एवं बलराम के अतिरिक्त राम और भरत चक्रवर्ती (चित्र ७०) के भी मूर्त चित्रणों के कुछ उदाहरण प्राप्त होते हैं । पउमचरिय में राम-रावण और भरत चक्रवर्ती की कथा का विस्तृत वर्णन है ।
कृष्ण-बलराम
कृष्ण-बलराम २२ वें जिन नेमिनाथ के चचेरे भाई हैं। यहां हिन्दू धर्म से भिन्न कृष्ण-बलराम को सर्वशक्तिमान देवता के रूप में न मानकर बल, ज्ञान एवं बुद्धि में नेमिनाथ से हीन बताया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र ( ल० चौथी-तीसरी शती ई० पू०) ७ के रथनेमि शीर्षक २२ वें अध्याय में कृष्ण से सम्बन्धित कुछ उल्लेख हैं । सौर्यपुर नगर में वसुदेव और समुद्रविजय दो शक्तिशाली राजकुमार थे । वसुदेव की रोहिणी और देवकी नाम की दो पत्नियां थीं, जिनसे क्रमशः राम (बलराम) और केशव (कृष्ण) उत्पन्न हुए । समुद्रविजय की पत्नी शिवा से अरिष्टनेमि (नेमिनाथ या रथनेमि ) उत्पन्न हुए | केशव ने एक शक्तिशाली शासक की पुत्री राजीमती के साथ अरिष्टनेमि का विवाह निश्चित किया । पर विवाह के पूर्व हो रथनेमि ने रैवतक ( गिरनार ) पर्वत पर दीक्षा ग्रहण की, जहां राम और केशव ने अरिष्टनेमि के प्रति श्रद्धा व्यक्त की । उत्तराध्ययन सूत्र के विवरण को ही कालान्तर में सातवीं शती ई० के बाद के जैन ग्रन्थों (हरिवंशपुराण, महापुराण – पुष्पदंतकृत, त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र ) में विस्तार से प्रस्तुत किया गया । नायाधम्मकहाओ में भी कृष्ण से सम्बन्धित उल्लेख हैं, जो मुख्यतः पाण्डवों की कथा से सम्बन्धित है । अन्तगड्दसाओ ( ८वां अंग ) में कृष्ण से सम्बन्धित उल्लेख द्वारवती
१ स्थानांगसूत्र २२
२ ग्रन्थ में केवल २४ जिनों एवं १२ चक्रवर्तियों की ही सूची है । अन्य के लिए मात्र इतना उल्लेख है कि त्रिपृष्ठ से कृष्ण तक ९ वासुदेव और अचल से राम तक नौ बलदेव होंगे । समवायांगसूत्र १३२, १५८, २०७
३ कल्पसूत्र १७ : ''''अरहन्ता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा"
४ पउमचरिय ५. १४५-५७
५ १२ चक्रवर्तियों की सूची में तीन (शान्ति, कुंथु, अर) जिन भी सम्मिलित हैं । ये जिन एक ही भव में जिन और चक्रवर्ती दोनों हुए ।
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६ वैशाखीय, महेन्द्रकुमार, 'कृष्ण इन दि जैन केनन,' भारतीय विद्या, खं० ८, अं० ९-१०, पृ० १२३
७ दोशी, बेचरदास, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १, वाराणसी, १९६६, पृ० ५५
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८ जैकोबी, एच०, जैन सूत्रज, भा० २, पृ० ११२-१९, विण्टर नित्ज, एम० पु०नि०, पृ० ४६९ ९ नायाधम्मकहाओ ६८
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