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[ जैन प्रतिमाविज्ञाने
था ।' नायाधम्मकहाओ में उत्पतनी (उप्पयनी) एवं चोरों की सहायक विद्याओं का उल्लेख है । ग्रन्थ में महावीर के प्रमुख शिष्य सुधर्मा को मंत्र एवं विद्या का ज्ञाता बताया गया है। स्थानांगसूत्र में जांगोलि एवं मातंग विद्याओं के उल्लेख हैं । 3 सूत्रकृतांगसूत्र के पापश्रुतों में वैताली, अर्धवैताली, अवस्वपनी, तालुघ्घादणी, श्वापाकी, सोवारी, कलिंगी, गौरी, गान्धारी, अवेदनी, उत्पवनी एवं स्तम्भनी आदि विद्याओं के उल्लेख हैं । सूत्रकृतांग के गौरी और गान्धारी विद्याओं को कालान्तर में १६ महाविद्याओं की सूची में सम्मिलित किया गया ।
पउमचरिय में ऋषभदेव के पौत्र नमि और विनमि को धरणेन्द्र द्वारा बल एवं समृद्धि की अनेक विद्याएं प्रदान किये जाने का उल्लेख है ।" ग्रन्थ में विभिन्न स्थलों पर प्रज्ञप्ति, कौमारी, लधिमा, व्रजोदरी, वरुणी, विजया, जया, वाराही, कौबेरी, योगेश्वरी, चण्डाली, शंकरी, बहुरूपा, सर्वकामा आदि विद्याओं के नामोल्लेख हैं । एक स्थल पर महालोचन देव द्वारा पद्म (राम) को सिंहवाहिनी विद्या और लक्ष्मण को गरुडा विद्या दिये जाने का उल्लेख है । कालान्तर में उपर्युक्त विद्याओं से गरुडवाहिनी अप्रतिचक्रा और सिंहवाहिनी महामानसी महाविद्याओं की धारणा विकसित हुई ।
लोकपाल
पउमचरिय में लोकपालों से घिरे इन्द्र के ऐरावत गज पर आरूढ़ होने का उल्लेख है ।' इन्द्र ने ही राशि (सोम) की पूर्व, वरुण की पश्चिम, कुबेर की उत्तर और यम की दक्षिण दिशा में स्थापना की ।"
अन्य देवता
आगम ग्रन्थों में देवताओं को भवनवासी ( एक स्थल पर निवास करनेवाले), व्यंतर या वाणमन्तर ( भ्रमणशील ), ज्योतिष्क ( आकाशीयः नक्षत्र से सम्बन्धित ) एवं वैमानिक या विमानवासी (स्वर्ग के देव ), इन चार वर्गों में विभाजित किया गया है । १° पहले वर्ग में १०, दूसरे में ८, तीसरे में ५ और चौथे में ३० देवता हैं । देवताओं का यह विभाजन निरन्तर मान्य रहा। पर शिल्प में इन्द्र, यक्ष, अग्नि, नवग्रह एवं कुछ अन्य का ही चित्रण प्राप्त होता है ।
जैन ग्रन्थों में ऐसे देवों के भी उल्लेख हैं जिनकी पूजा लोक परम्परा में प्रचलित थी, और जो हिन्दू एवं बौद्ध धर्मों में भी लोकप्रिय थे । ११ इनमें रुद्र, शिव, स्कन्द, मुकुन्द, वासुदेव, वैश्रमण ( या कुबेर), गन्धर्व, पितर, नाग, भूत, पिशाच, लोकपाल (सोम, यम, वरुण, कुबेर), वैशवानर (अग्निदेव ) आदि देव, और श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, अज्जा (पार्वती या आर्या या चण्डिका), कोट्ट किरिया (महिषासुरवधिका ) आदि देवियां प्रमुख हैं । १२
प्रारम्भिक ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि पांचवीं शती ई० के अन्त तक जैन देवकुल के मूल स्वरूप का निर्धारण काफी कुछ पूरा हो चुका था । इन ग्रन्थों में जिनों, शलाका-पुरुषों, यक्षों, विद्याओं, सरस्वती, लक्ष्मी, कृष्णबलराम, नैगमेषी एवं लोक धर्म में प्रचलित देवों की स्पष्ट धारणा प्राप्त होती है ।
१ औपपातिकसूत्र १६
२ नायाधम्मकहाओ, सं० पी० एल० वैद्य, १४, ०१, १४१०४, पृ० १५२, १६.१२९, १०१८९, १८ १४१, पृ० २०९
३ स्थानांगसूत्र ८ ३.६११, ९३.६७८; पउमचरिय ७ १४२
४ सूत्रकृतांगसूत्र २२.१५
५ पउमचरिय ३ १४४-४९
७ पउमचरिय ५९.८३-८४ ९ पउमचरिय ७४७
१३७-३८, आचा रांगसूत्र २.१५.१८
१० समवायांगसूत्र १५०, तत्त्वार्थ सूत्र, पृ० ११ शाह, यू०पी०, 'बिगिनिंग्स ऑव जैन आइकनोग्राफी', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० १० १२ भगवतीसूत्र ३.१.१३४; अंगविज्जा, अध्याय ५१ (भूमिका - वी० एस० अग्रवाल, पृ० ७८ )
६ शाह, यू०पी०, पु०नि०, पृ० ११७ ८ पउमचरिय ७२२
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