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मैन देवकुल का विकास ]
जैन आगमों में विभिन्न स्थलों के चैत्यों के उल्लेख हैं जहां अपने भ्रमण के दौरान महावीर विश्राम करते थे।' इनमें दूतिपलाश, कोष्ठक, चन्द्रावतरन, पूर्णभद्र, जम्बूक, बहुपुत्रिका, गुणशिल, बहुशालक, कुण्डियायन, नन्दन, पुष्पवती, अंगमन्दिर, प्राप्तकाल, शंखवन, छत्रपलाश आदि प्रमुख हैं। इस सूची में आये पूर्णभद्र, बहुपुत्रिका एवं गुणशिल जैसे चैत्य निश्चित ही यक्ष चैत्य थे क्योंकि आगम ग्रन्थों में ही अन्यत्र इनका यक्षों के रूप में उल्लेख है। जैन ग्रन्थों में यक्ष जिनों के चामरधर सेवकों के रूप में भी निरूपित हैं।
जैन ग्रन्थों में माणिभद्र और पूर्णभद्र यक्षों एवं बहुपुत्रिका यक्षी को विशेष महत्व दिया गया। माणिभद्र और पूर्णभद्र यक्षों को व्यंतर देवों के यक्ष वर्ग का इन्द्र बताया गया है। इन यक्षों ने चम्पा में महावीर के प्रति श्रद्धा व्यक्त की थी। अंतगड्दसाओ और औपपातिकसूत्र में चम्पानगर के पुण्णभद्द (पूर्णभद्र) चैत्य का उल्लेख है।" पिण्डनियुक्ति में सामिल्लनगर के बाहर स्थित माणिभद्र यक्ष के आयतन का उल्लेख है। पउमचरिय में पूर्णभद्र और माणिभद्र यक्षों का शान्तिनाथ के सेवक रूप में उल्लेख है। भगवतीसूत्र में विशला (उज्जैन या वैशाली) के समीप स्थित बहुपुत्रिका के मन्दिर का उल्लेख है। ग्रन्थ में बहुपुत्रिका को माणिभद्र और पूर्णभद्र यक्षेन्द्रों की चार प्रमुख रानियों में एक बताया गया है। यू० पी० शाह की धारणा है कि जैन देवकुल के प्राचीनतम यक्ष-यक्षी, सर्वानुभूति (या मातंग या गोमेध) और अम्बिका की कल्पना निश्चित रूप से माणिभद्र-पूर्णभद्र यक्ष और बहुपुत्रिका यक्षी के पूजन की प्राचीन परम्परा पर आधारित है। जहां बौद्ध धर्म में जंभल (कुबेर) और हारिती की मूर्तियां कुषाण काल में निर्मित हुई, वहीं जैन धर्म में सर्वानुभूति और अम्बिका का चित्रण गुप्त युग के बाद ही लोकप्रिय हुआ। शिल्प में सर्वानुभूति यक्ष का तुन्दीलापन प्रारम्भिक यक्ष मूर्तियों की तुन्दीली आकृतियों से सम्बन्धित रहा है ।१२ जैन यक्षी अम्बिका के साथ दो पुत्रों का प्रदर्शन बहुपुत्रिका यक्षी के नाम । प्रभावित रहा हो सकता है । 3 विद्यादेवियां
प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में विद्याओं से सम्बन्धित अनेक उल्लेख हैं।१४ पर जैन शिल्प में ल० आठवीं-नवीं शती ई० से ही इनका चित्रण प्राप्त होता है। पूर्ण विकसित विद्याओं के नामों एवं लाक्षणिक स्वरूपों की धारणा प्रारम्भिक ग्रन्थों में ही प्राप्त होती है। आगम ग्रन्थों में विद्याओं का आचरण जैन आचार्यों के लिए वजित था। पर कालान्तर में विद्यादेवियां ग्रन्थ एवं शिल्प की सर्वाधिक लोकप्रिय विषयवस्तु बन गई। जैन परम्परा में इन विद्याओं की संख्या ४८ हजार तक बतायी गयी है।
बौद्ध एवं जैन साहित्य बुद्ध एवं महावीर के समय में जादू, चमत्कार, मन्त्रों एवं विद्याओं का उल्लेख करते हैं। औपपातिकसूत्र के अनुसार महावीर के अनुयायी थेरों (स्थविरों) को विज्जा (विद्या) और मंत (मन्त्र) का ज्ञान १ आगम ग्रन्थों में कहीं भी महावीर द्वारा जिन मूर्ति के पूजन या जिन मन्दिर में विश्राम का उल्लेख नहीं है-शाह,
यू० पी०, 'बिगिनिंग्स ऑव जैन आइकानोग्राफी', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० २ २ शाह, यू० पी०, 'यक्षज वरशिप इन अर्ली जैन लिट्रेचर', ज०ओ०ई०, खं० ३, अं० १, पृ० ६२-६३ ३ वही, पृ० ६०-६४
४ वही, पृ० ६०-६१. ५ अंतगड्वसाओ, पृ० १, पा० टि० २; औपपातिकसूत्र २ ६ पिण्डनियुक्ति ५.२४५ ७ पउमचरिय ६७.२८-४९
८ शाह, यू० पी०, पू०नि०, पृ०६१, पा० टि० ४३ ९ भगवतोसूत्र १८.२, १०.५ १० प्रारम्भ में यक्ष का कोई एक नाम पूर्णतः स्थिर नहीं हो सका था। ११ शाह, यू० पी०, पू०नि०, पृ० ६१-६२ १२ सर्वानुभूति यक्ष की भुजा में धन के थैले का प्रदर्शन सम्भवतः प्रारम्भिक यक्षों के व्यापारियों के मध्य लोकप्रियता __(पवाया मूर्ति) से सम्बन्धित हो सकता है—कुमारस्वामी, ए० के०, पू०नि०, पृ० २८ १३ शाह, यू० पी० पू०नि०, पृ० ६५-६६ . १४ विस्तार के लिए द्रष्टव्य,शाह, यू०पी०, आइकानोग्राफी औव दि सिक्सटीन जैन महाविद्याज',जाइंसो०ओ०आ०.
खं० १५, पृ० ११४-७७ १५ वही, पृ० ११४-११७ १६ वही, पृ० ११४
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