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तृतीय अध्याय जैन देवकुल का विकास
भारतीय कला तत्वतः धार्मिक है । अतः सम्बन्धित धर्म या सम्प्रदाय में होने वाले परिवर्तनों अथवा विकास से शिल्प की विषयवस्तु में भी परिवर्तन हए हैं। प्रतिमाविज्ञान धर्म से सम्बद्ध मानवेतर विशिष्ट व्यक्तियों-देवी-देवताओं, शलाका-पुरुषों (मिथकों में वर्णित जनों) के स्वरूप एवं स्वरूपगत विकास का ऐतिहासिक अध्ययन है। इस अध्ययन के दो पक्ष हैं-शास्त्र-पक्ष एवं कला-पक्ष । शास्त्र-पक्ष धार्मिक एवं अन्य साहित्य में वर्णित स्वरूपों को विवेचना से, तथा कला-पक्ष कलावशेषों में प्राप्त मूर्त स्वरूपों के अध्ययन से सम्बद्ध हैं। इसी दृष्टि से प्रतिमाविज्ञान 'धार्मिक कला के व्याख्या पक्ष' से सम्बन्धित है ।
जैन प्रतिमाविज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से जैन साहित्य में प्राप्त जैन देवकुल के क्रमिक विकास का ज्ञान नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत अध्ययन में जैन साहित्य का अवगाहन कर जैन देवकुल के क्रमिक विकास का निरूपण एवं जैन देवकूल में समय-समय पर हुए परिवर्तनों और नवीन देवों के आगमन के कारणों के उद्घाटन का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त साहित्य में प्राप्त जैन देवकूल का विकास कला में किस प्रकार और कहां तक समाहित किया गया, इस पर भी संक्षेप में दृष्टिपात किया गया है । कालक्रम की दृष्टि से यह अध्ययन दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग की स्रोतसामग्री पांचवीं शती ई० तक का प्रारम्भिक जैन साहित्य है और दूसरे भाग का आधार १२ वीं शती ई० तक का परवर्ती जैन साहित्य है। (क) प्रारम्भिक काल (प्रारम्भ से पांचवीं शती ई० तक)
प्रारम्भिक जैन साहित्य में महावीर के समय (ल. छठी शती ई०पू०) से पांचवीं शती ई० के अन्त तक के ग्रंथ सम्मिलित हैं। प्रारम्भिक जैन ग्रंथों की सीमा पांचवीं शती ई० तक दो दृष्टियों से रखी गयी है। प्रथमतः जैन धर्म के सभी ग्रन्थ ल० पांचवीं शती ई० के मध्य या छठी शती ई० के प्रारम्भ में देवद्धिगणि-क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वलभी (गुजरात) वाचन में लिपिबद्ध किये गये । दूसरे, इन ग्रन्थों में जैन देवकुल की केवल सामान्य धारणा ही प्रतिपादित है।
आगम ग्रन्थ जैनों के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। उपलब्ध आगम ग्रन्थों के प्राचीनतम अंश ल० चौथी शती ई०पू० के अन्त और तोसरी शती ई०पू० के प्रारम्भ के हैं। काफी समय तक श्रृत परम्परा में सुरक्षित रहने के कारण कालक्रम के साथ इन प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में प्रक्षेपों के रूप में नवीन सामग्री जुड़ती गई। इसकी पुष्टि भगवतीसूत्र (पांचवां अंग) में पांचवीं शती ई०५, रायपसेणिय (राजप्रश्नीय-दूसरा उपांग) में कुषाण कालीन और अंगविज्जा में कुषाण-गुप्त सन्धि
१ बनर्जी, जे० एन०, दि डीवेलप्मेण्ट ऑव हिन्दू आइकानोग्राफी, कलकत्ता, १९५६, पृ० २ २ महावीर निर्वाण के ९८० या ९९३ वर्ष बाद (४५४ या ५१४ई०) : द्रष्टव्य, जैकोबी, एच०, जैन सूत्रज, भाग १, सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, खं० २२, दिल्ली, १९७३ (पु०म०), प्रस्तावना, पृ०३७; विण्टरनित्ज, एम०, ए हिस्ट्री
ऑब इण्डियन लिट्रेचर, खं० २, कलकत्ता, १९३३, पृ० ४३२ ३ इसमें द्वादश अंगों के अतिरिक्त १२ उपांग, ४ छेद, ४ मूल और १ आवश्यक ग्रन्थ सम्मिलित थे। महावीर के
मूल उपदेशों का संकलन द्वादश अंगों में था (समवायांगसूत्र १ और १३६)। ४ जैकोबी, एच०, पू०नि०, पृ० ३७-४४; विण्टरनित्ज, एम०, पू०नि०, पृ० ४३४ ५ सिक्दर, जे० सी०, स्टडीज इन दि भगवती सूत्र, मुजफ्फरपुर, १९६४, पृ० ३२-३८ ६ शर्मा, आर० सी०, 'आर्ट डेटा इन रायपसेणिय', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० ३८
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