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राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ]
शैव धर्मावलम्बी होने के बाद भी भोज (१०१०-१०६२ ई.) ने जैन धर्म एवं साहित्य को संरक्षण दिया था। भोज ने जैन आचार्य प्रभाचन्द्र के चरणों की वन्दना की थी। खजुराहो के जैन मन्दिरों (पार्श्वनाथ, घण्टई, आदिनाथ) के अतिरिक्त चन्देल राज्य में सर्वत्र प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियां एवं मन्दिर भी उनके जैन धर्म के प्रति उदार दृष्टिकोण की पुष्टि करते हैं। धंग के महाराजगुरु वासवचन्द्र जैन थे।२
जैन धर्म को ग्वालियर एवं दुबकुण्ड के कच्छपघाट शासकों का भी समर्थन प्राप्त था। वज्रदामन ने ९७७ ई० में ग्वालियर में एक जैन मूर्ति प्रतिष्ठित कराई । दुबकुण्ड के एक जैन लेख (१०८८ ई०) में विक्रमसिंह द्वारा वहां के एक जैन मन्दिर को दिए गए दान का उल्लेख है। कल्चरी शासकों के जैन धर्म के समर्थन से सम्बन्धित केवल एक लेख बहरिबन्ध से प्राप्त होता है, जिसमें गयाकर्ण के राज्य में सर्वधर के पुत्र महाभोज (?) द्वारा शान्तिनाथ के मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है।
देश के मध्य में इस क्षेत्र की स्थिति व्यापार की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। लगभग सभी क्षेत्रों के व्यापारी इस व से होकर दूसरे प्रदेशों को जाते थे। व्यापारियों ने जैन मूर्तियों के निर्माण में पूरा योगदान दिया था। खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर को पांच बाटिकाओं का दान देने वाला व्यापारी पाहिल्ल श्रेष्ठी देदू का पुत्र था ।' दुबकुण्ड जैन लेख (१०८८ ई०) में दो जैन व्यापारियों, ऋषि एवं दाहद की वंशावली दी है, जिन्हें विक्रमसिंह ने श्रेष्ठी की उपाधि दी थी। दाहद ने विशाल जैन मन्दिर का निर्माण भी करवाया था। खजुराहो के एक मूर्ति लेख (१०७५ ई०) में श्रेष्ठी बीवनशाह की भार्या पद्मावती द्वारा आदिनाथ की मूर्ति स्थापित कराने का उल्लेख है। खजुराहो के ११४८ ई० के एक 3.न्य मूर्ति लेख में श्रेष्ठी पाणिधर के पुत्रों, त्रिविक्रम, आल्हण तथा लक्ष्मीधर के नामों का", तथा ११५८ ई० के एक तीसरे लेख में पाहिल्ल के वंशज एवं ग्रहपति कुल के साधु साल्हे द्वारा सम्भवनाथ की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है। परमदि के शासनकाल के अहाड़ लेख (११८० ई०) में ग्रहपति वंश के जैन व्यापारी जाहद की वंशावली दी है। जाहद ने मदनेशसागरपुर के मन्दिर में विशाल शांतिनाथ' प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी थी। धुबेला संग्रहालय की एक नेमिनाथ मूर्ति (क्रमांक : ७) के लेख (११४२ ई०) से ज्ञात होता है कि मूर्ति की स्थापना श्रेष्ठी कुल के मल्हण द्वारा हुई थी। बिहार-उड़ीसा-बंगाल
मध्ययुग में जैनधर्म को बिहार में किसी भी प्रकार का शासकीय समर्थन नहीं मिला, जिसका प्रमुख कारण पालों का प्रबल बौद्ध धर्मावलम्बी होना था। इसी कारण इस क्षेत्र में राजगिर के अतिरिक्त कोई दूसरा विशिष्ट एवं लम्बे इतिहास वाला कला केन्द्र स्थापित नहीं हुआ। जिनों की जन्मस्थली और भ्रमणस्थली होने के कारण राजगिर पवित्र माना गया।११ पाटलिपुत्र (पटना) के समीप राजगिर की स्थिति भी व्यापार की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी।१२ राजगिर व्यापारिक मार्गों से वाराणसी, मथुरा, उज्जैन, चेदि, श्रावस्ती और गुजरात से सम्बद्ध था।
१ भाटिया, प्रतिपाल, दि परमारज, दिल्ली, १९७०, पृ० २६७-७२; चौधरी, गुलाबचन्द्र, पू०नि०, पृ० ९४,
२ जेनास, ई० तथा आबोयर, जे०, खजुराहो, हेग, १९६०, पृ० ६१ ३ एपि०इण्डि०, खं० २, पृ० २३२-४० ४ मिराशी, वी०वी०, का०ई०ई०, खं० ४, भाग १, पृ० १६१ ५ विजयमूर्ति (सं०), जै०शि०सं०, भाग ३, बंबई, १९५७, पृ० १०८ ६ एपि०इण्डि०, खं० २, पृ० २३७-४० ७ शास्त्री, परमानन्द जैन, 'मध्य भारत का जैन पुरातत्व', अनेकान्त, वर्ष १९, अं० १-२, पृ० ५७ ८ विजयमूर्ति (सं०), जै०शि०सं०, भाग ३, पृ० ७९
९ वही, पृ० १०८ १० चौधरी, गुलाबचन्द्र, पू०नि०, पृ० ७०
११ जैन, जे०सी०, पू०नि०, पृ० ३२६-२७ १२ गोपाल, एल०, पू०नि०, पृ० ९१
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