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[ जैन प्रतिमाविज्ञान मुसलमान यात्रियों, भौगोलिकों (मार्कोपोलो) के वृत्तान्तों एवं गुजरात के प्रबन्ध काव्यों में उल्लेख है कि मध्ययुग में गुजरात में कृषि, व्यवसाय, व्यापार एवं वाणिज्य पूर्णतः विकसित था। पूर्वी एवं पश्चिमी देशों के साथ गुजरात का व्यापार था। भड़ौच, कैबे और सोमनाथ गुजरात के तीन महत्वपूर्ण बंदरगाह थे जिनके कारण इस क्षेत्र का बिदेशों से होने वाले व्यापार पर प्रभाव था।'
राजस्थान
जैन धर्म एवं कला की दृष्टि से दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र राजस्थान था, जहां जैन धर्म को अधिकांश राजवंशों का समर्थन मिला । आठवीं से बारहवीं शती ई० तक राजस्थान और गुजरात राजनीतिक दृष्टि से पर्याप्त सीमा तक एक दूसरे से सम्बद्ध थे। गुर्जर-प्रतिहार एवं चौलुक्य शासकों की राजनीतिक गतिविधियां दोनों ही राज्यों से सम्बद्ध थीं। इसी कारण दोनों राज्यों का जैन धर्म एवं कला को योगदान तथा दोनों क्षेत्रों में होने वाला इनका विकास लगभग समान रहा।
गुर्जर-प्रतिहार शासकों का जैन धर्म को समर्थन प्राप्त था। जैन परम्परा में सत्यपुर (संचोर) एवं कोरणट (कोर्त) के महावीर मन्दिरों के निर्माण का श्रेय नागभट प्रथम को दिया गया है। ओसिया के जैन मन्दिर के ९५६ ई० के लेख में वत्सराज (७७०-८००ई०) का उल्लेख है, जिसके शासनकाल में यह मन्दिर विद्यमान था । मिहिरभोज ने जैन आचार्यों, नन्नसरि एवं गोविन्दसूरि, के प्रभाव में जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। मण्डोर के प्रतिहार शासक कक्कुक (८६१ ई०) ने रोहिम्सकूप में एक जिन मन्दिर का निर्माण करवाया।
प्रारम्भिक चाहमान शासकों का जैन धर्म से सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है, किन्तु परवर्ती चाहमान शासक निश्चित ही जैन धर्म के प्रति उदार थे। पृथ्वीराज प्रथम ने रणथम्भोर के जैन मन्दिर पर तथा अजयराज ने अजमेर के पार्श्वनाथ मन्दिर पर कलश स्थापित कराया। अजयराज धर्मघोषसूरि (श्वेताम्बर) एवं गुणचन्द्र (दिगम्बर) के मध्य हुए शास्त्रार्थ में निर्णायक भी था। अर्णोराज ने पार्श्वनाथ के एक विशाल मन्दिर के लिए भूमि दी और जिनदत्तसरि को सम्मानित किया। बिजोलिया के लेख (११६९ ई०) में पृथ्वीराज द्वितीय एवं सोमेश्वर द्वारा पार्श्वनाथ मन्दिर के लिए दो ग्रामों के दान देने का उल्लेख है।
नाडोल के चाहमान शासकों के समय में नाडोल में नेमिनाथ, शान्तिनाथ एवं पद्मप्रभ मन्दिरों का निर्माण हुआ। सेवाड़ी (जोधपुर) के महावीर मन्दिर के लेख (१११५ ई०) में कटुकराज के शान्तिनाथ के पूजन हेतु वार्षिक अनुदान देने का उल्लेख है। कीर्तिपाल ने नड्डुलडागिका (नाड्लई) के महावीर मन्दिर को ११६० ई० में दान दिया। कीर्तिपाल के पुत्रों, लखनपाल एवं अभयपाल; ने रानी महीबलादेवी के साथ शान्तिनाथ का महोत्सव मनाने के लिए दान दिया था। नाइलाई के आदिनाथ मन्दिर के एक लेख (११३२ ई०) में रायपाल के दो पुत्रों, रुद्रपाल और अमृतपाल के अपनी माता
१ मजूमदार, ए० के०, पू०नि०, पृ० २६५; गोपाल, एल०, दि ईकनामिक लाईफ ऑव नार्दर्न इण्डिया, वाराणसी,
१९६५, पृ० १४२, १४८; जैन, जे० सो०, पू०नि०, पृ. ३३१ २ ढाकी, एम० ए०, पू०नि०, पृ० २९४-९५ ३ नाहर, पी० सी०, पू०नि०, पृ० १९२-९४, लेख सं० ७८८; भण्डारकर, डी० आर०, 'दि टेम्पल्स ऑव ओसिया',
आ०स०ई०ए०रि०, १९०८-०९, पृ० १०८ ४ शर्मा, दशरथ, राजस्थान थ दि एजेज, खं० १, बीकानेर, १९६६, पृ० ४२० ५ जैन, के० सी०, जैनिजम इन राजस्थान, शोलापुर, १९६३, पृ० १९ ६ एपि०इण्डि०, खं० २६, पृ० १०२; जोहरापुरकर, विद्याधर (सं०), जै०शि०सं०, भाग ४, वाराणसी, महावीर
निर्वाण सं० २४९१, पृ० १९६ ७ चौधरी, गुलाबचन्द्र, पू०नि०, पृ० १५१
८ ढाकी, एम० ए०, पू०नि०, पृ० २९५-९६ ९ एपि०इण्डि०, खं० ९, पृ० ४९-५१
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