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राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ]
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हुआ । जैन धर्मं को अजयपाल ( ११७३-७६ ई०) के अतिरिक्त सभी शासकों का समर्थन मिला । मूलराज प्रथम (९४२९५ ई०) ने अण्हिलपाटक में दिगम्बर सम्प्रदाय के लिए मूलवसतिका प्रासाद और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लिए मूलनाथ जिनदेव मन्दिर का निर्माण कराया । प्रभावकचरित के अनुसार चामुण्डराज जैन आचार्य वीराचार्य से प्रभावित था और युवराज के रूप में ही ९७६ ई० में उसने वरुणशर्मक ( मेहसाणा ) के जैन मन्दिर को दान दिया था । भीमदेव प्रथम (१०२२-६४ ई०) ने सुराचार्य, शान्तिसूरि, बुद्धिसागर तथा जिनेश्वर जैसे जैन विद्वानों को अपने दरबार में प्रश्रय दिया । कणं (१०६४-९४ ई०) ने टाकववी या टाकोवी (तकोडि) के सुमतिनाथ जिन मन्दिर' को भूमिदान दिया । जयसिंह सिद्धराज (१०९४ - ११४४ ई०) के काल में श्वेताम्बर धर्मं गुजरात में भलीभांति स्थापित हो चुका था । जयसिंह के ही नाम पर जैन आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्ध-हेम-व्याकरण की रचना की थी। जयसिंह की ही उपस्थिति में श्वेताम्बरों एवं दिगम्बरों ने शास्त्रार्थ किया, जिसमें दिगम्बरों ने पराजय स्वीकार की । द्वयाश्रयकाव्य ( हेमचन्द्रकृत ) में जयसिंह के सिद्धपुर में महावीर मन्दिर के निर्माण कराने और अहंत् संघ को स्थापित करने का उल्लेख है । ग्रन्थ में पुत्र प्राप्ति हेतु जयसिंह के रैवतक ( गिरनार ) और शत्रुंजय पहाड़ियों पर जाने और नेमिनाथ एवं ऋषभदेव के पूजन करने का भी उल्लेख है । '
कुमारपाल (१९४४ -७४ ई०) जैन धर्म एवं कला का महान समर्थक था । प्रबन्धों में उसके जैन धर्म स्वीकार करने का उल्लेख है । मेरुतुंगकृत प्रबन्धचिन्तामणि (१३०६ ई०) के अनुसार इसने 'परमार्हत्' उपाधि धारण की। अशोक के समान कुमारपाल ने विभिन्न स्थानों पर कुमार विहारों का निर्माण करवाया तथा इनके माध्यम से जैन धर्म का प्रचार और प्रसार किया । कुमारपाल को १४४० जैन मन्दिरों का निर्माणकर्ता कहा गया है । यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण है, फिर भी इससे कुमारपाल द्वारा निर्मित जैन मन्दिरों की पर्याप्त संख्या का आभास मिलता है, जिसका पुरातात्विक प्रमाण भी समर्थन करते हैं । कुमारपाल ने तारंगा (मेहसाणा ) में अजितनाथ और जालोर के कांचनगिरि ( सुवर्णगिरि) पर पार्श्वनाथ मन्दिरों का निर्माण कराया । कुमारपाल द्वारा निर्मित जैन मन्दिर (कुमार विहार) जालोर से प्रभास तक के पर्याप्त विस्तृत क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण जैन केन्द्रों में निर्मित हुए । 4 कुमारपाल के उपरान्त गुजरात में जैन धर्मं को राजकीय समर्थन नहीं मिला ।
चौलुक्य शासकों के मन्त्रियों, सेनापतियों एवं अन्य विशिष्ट जनों और व्यापारियों ने भी जैन धर्म और कला को समर्थन प्रदान किया । भीमदेव के दण्डनायक विमल ने शत्रुंजय और आरासण ( कुंभारिया) में दो मंदिरों का निर्माण कराया । कर्णदेव के प्रधान मन्त्री सान्तू ने अहिलपाटक एवं कर्णावती में सान्तू वसतिका का निर्माण करवाया, कर्णदेव के ही मन्त्री मुंजला (जो बाद में जयसिंह सिद्धराज के भी मन्त्री रहे) के १०९३ ई० के पूर्व अहिलपाटक में मुन्जलवसती, मन्त्री उदयन के कर्णावती में उदयन विहार (१०९३ ई०), स्तंभ तीर्थ में उदयनवसती और धवलकक्क (धोल्क) में सीमन्धर जिन मन्दिर (१११९ ई०), सोलाक सन्त्री के अहिलपाटक में सोलाकवसती, दण्डनायक कपर्दी के अहिलपाटक में ही जिन मन्दिर (१११९ ई०), जयसिंह के दण्डनायक सज्जन के गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ मन्दिर ( ११२९ ई०), कुमारपाल के मन्त्री पृथ्वीपाल के सायणवाड्पुर में शान्तिनाथ मन्दिर एवं आबू के विमलवसही में रंगमण्डप एवं देवकुलिकाएं संयुक्त कराने के उल्लेख प्राप्त होते हैं । उदयन के पुत्र एवं मन्त्री वाग्भट्ट ने शत्रुंजय पर्वत पर प्राचीन मन्दिर के स्थान पर नवीन आदिनाथ मन्दिर (१९५५ - ५७ ई०) का निर्माण कराया । कुमारपाल के दण्डनायक के पुत्र अभयद को जैन धर्म के प्रति आस्थावान बताया गया है । गम्भूय के समृद्ध व्यापारी निन्नय ने अण्हिलपाटक में ऋषभदेव का एक मन्दिर बनवाया । ७
म०जै०वि० गो० जु०वा०,
१ वही, पृ०२४०, २५५, २५७; ढाकी, एम०ए०, 'सम अर्ली जैन टेम्पल्स इन वेस्टर्न इण्डिया', पृ० २९४ २ प्रबन्धचिन्तामणि, पृ० ८६ ३ मजूमदार, ए० के०, चौलुक्याज ऑव गुजरात, बंबई, १९५६, पृ० ३१७-१९ ४ नाहर, पी० सी०, जैन इन्स्क्रिप्शन्स, भाग १, कलकत्ता, १९१८, पृ० २३९, लेख सं० ८९९ ५ ढाकी, एम० ए० पू०नि०, पृ० २९४ ६ वही, पृ० २९६-९७
७ चौधरी, गुलाबचन्द्र, पु०नि०, पृ० २०१, २९५
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