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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
वणिक से प्राप्त करने एवं रानी प्रभावती द्वारा मूर्ति की भक्तिभाव ने पूजा करने का उल्लेख है। यही कथा हरिभद्रमुरि की आवश्यक वृत्ति में भी वणित है।
इसी कथा का उल्लेख हेमचन्द्र (११६९-७२ ई०) ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (पर्व १०, सर्ग ११) में कुछ नवीन तथ्यों के साथ किया है। हेमचन्द्र ने स्वयं महावीर के मुख से जीवंतस्वामी मूर्ति के निर्माण का उल्लेख कराते हुए लिखा है कि क्षत्रियकुण्ड ग्राम में दीक्षा लेने के पूर्व छद्मस्थ काल में महावीर का दर्शन विद्युन्माली ने किया था। उस समय उनके आभूषणों से सुसज्जित होने के कारण ही विद्युन्माली ने महावीर की अलंकरण युक्त प्रतिमा का निर्माण किया।' अन्य स्रोतों से भी ज्ञात होता है कि दीक्षा लेने का विचार होते हुए भी अपने ज्येष्ठ भ्राता के आग्रह के कारण महावीर को कुछ समय तक महल में हो धर्म-ध्यान में समय व्यतीत करना पड़ा था । हेमचन्द्र के अनुसार विद्युन्माली द्वारा निर्मित मूल प्रतिमा विदिशा में थी। हेमचन्द्र ने यह भी उल्लेख किया है कि चौलुक्य शासक कुमारपाल ने वीतभयपट्टन में उत्खनन करवाकर जीवंतस्वामी की प्रतिमा प्राप्त की थी। जीवंतस्वामी मूर्ति के लक्षणों का उल्लेख हेमचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी जैन आचार्य ने नहीं किया है । क्षमाश्रमण संघदास रचित बृहत्कल्पभाष्य के भाष्य गाथा २७५३ पर टीका करते हुए क्षेमकीति (१२७५ ई०) ने लिखा है कि मौर्य शासक सम्प्रति को जैन धर्म में दीक्षित करनेवाले आर्य सुहस्ति जीवंतस्वामी मूर्ति के पूजनार्थ उज्जैन गये थे। उल्लेखनीय है कि किसी दिगम्बर ग्रन्थ में जीवंतस्वामी मूर्ति की परम्परा का उल्लेख नहीं प्राप्त होता । इसका एक सम्भावित कारण प्रतिमा का वस्त्राभूषणों से युक्त होना हो सकता है।
सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि पाँचवीं-छठी शती ई० के पूर्व जीवंतस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना नहीं प्राप्त होती है । इस सन्दर्भ में महावीर के गणधरों द्वारा रचित आगम साहित्य में जीवंतस्वामी मूर्ति के उल्लेख का पूर्ण अभाव जीवंतस्वामी मूर्ति की धारणा की परवर्ती ग्रन्थों द्वारा प्रतिपादित महावीर की समकालिकता पर एक स्वाभाविक सन्देह उत्पन्न करता है। कल्पसूत्र एवं ई० पू० के अन्य ग्रन्थों में भी जीवंतस्वामी मूर्ति का अनुल्लेख इसी सन्देह की पुष्टि करता है। वर्तमान स्थिति में जीवंतस्वामी मूर्ति की धारणा को महावीर के समय तक ले जाने का हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। मौर्य-युग
बिहार जैन धर्म की जन्मस्थली होने के साथ-साथ भद्रबाह, स्थूलभद्र, यशोभद्र, सुधर्मन, गौतमगणधर एवं उमास्वाति जैसे जैन आचार्यों की मुख्य कार्यस्थली भी रही है। जैन परम्परा के अनुसार जैन धर्म को लगभग सभ. समर्थ मौर्य शासकों का समर्थन प्राप्त था। चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्मानुयायी होना तथा जीवन के अन्तिम वर्षों में भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत जाना सुविदित है। अर्थशास्त्र में जयन्त, वैजयन्त, अपराजित एवं अन्य जैन देवों की मूर्तियों का उल्लेख है।४ अशोक बौद्ध धर्मानुयायी होते हुए भी जैन धर्म के प्रति उदार था। उसने निर्ग्रन्थों एवं आजीविकों को दान दिए थे। सम्प्रति को भी जैन धर्म का अनुयायी कहा गया है। किन्तु मौर्य शासकों से सम्बद्ध इन परम्पराओं के विपरीत पुरातात्विक साक्ष्य के रूप में लोहानीपुर से प्राप्त केवल एक जिन मूर्ति ही है, जिसे मौर्य युग का माना जा सकता है।
१ त्रिश०पु०च० १०.११. ३७९-८० २ शाह, यू०पी०, पू०नि०, पृ० १०९ : जैन ग्रन्थों के आधार पर लिया गया यू०पी० शाह का निष्कर्ष दिगम्बर
कलाकेन्द्रों में जीवंतस्वामी के मूर्त चित्रणाभाव से भी समर्थित होता है। ३ मुखर्जी, आर० के०, चन्द्रगुप्त मौर्य ऐण्ड हिज टाइम्स, दिल्ली, १९६६ (पु०म०), पृ० ३९-४१ ४ भट्टाचार्य, बी० सी०, दि जैन आइकानोग्राफी, लाहौर, १९३९, पृ० ३३ ५ थापर, रोमिला, अशोक ऐण्ड दि डिक्लाइन आव दि मौर्यज, आक्सफोर्ड, १९६३ (पु०म०), पृ० १३७-८१;
मुखर्जी, आर० के०, अशोक, दिल्ली, १९७४, पृ० ५४-५५ ६ परिशिष्टपर्वन ९.५४ : थापर, रोमिला, पू०नि०, पृ० १८७
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