Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 21
________________ (२२) उत्तरप्रकृतियोंके नामोंका कथन नहीं है। तथैव माथा २७, २८१३२ के पश्चात् नामकर्मकी कुछ उत्तरप्रकृतियोंके नाम नहीं हैं एवं गोत्रकर्मकी उत्तरप्रकृतियोंके नाम भी नहीं हैं जो गाथा ३३ के पश्चात् होने चाहिये थे। यह सर्वकथन मूलगद्यभागमें था जिसको मुद्रित प्रतियोंमें छोड़ दिया गया। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी गाथाएँ भी थीं जिनपर कर्नाटकवृत्ति या संस्कृतटीका नहीं लिखी गई संभव है वे गाथाएँ कर्नाटकवृत्तिकारके सामने भो न हों। वे गाथाएँ भी मुद्रित-प्रतियोंमें नहीं हैं। 'अनेकान्त' वर्ष ८ किरण ८-९ सन् १९४७ में एक लेखके द्वारा गद्यभाग व गाथाओं को सूचना तथा उनका प्रकाशन भी हुआ था जिनको साभार ग्रहणकर प्रस्तुत टीकाम यथास्थान जोड़ दिया गया है। जो गाथाएं जोड़ा गई हैं उनसे गाथाक्रममें काई परिवर्तन न हो इस दृष्टिसे उन्हें क ख आदि नम्बरोंसे सम्मिलित किया गया है। जैसे-३६० क इत्यादि ९ गाथाएँ यथास्थान जोड़ी गई हैं जो ३६० से ३९० के बीच में ही हैं। विषय-परिचय गोम्मटसार कर्मकाण्डमें ९ अधिकार हैं- १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन २. बंधोदयसत्वाधिकार ३. सत्त्वस्थानभंगाधिकार ४. त्रिचूलिकाधिकार ५. स्थानसमुत्कीर्तनाधिकार ६. प्रत्ययाधिकार ७. भावचूलिकाधिकार ८. त्रिकरणचूलिकाधिकार ९. क्रमस्थित्तिरचनाधिकार । प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारमें ८६ गाथा हैं जिनमें मंगलाचरण पुरस्सर कर्मोकी आठ मूल तथा उनकी उत्तरप्रकृतियोंके नाम व कुछ प्रकृतिविशेषके कार्य, घाति-अघातीक्रम संज्ञा, छहाँसंहननवाले जीवों के उत्पत्तिस्थान, महिला (द्रव्यस्त्री) के संहनन, कषायोंका कार्य व संस्कारकाल, पुदूगलविपाकी-भवविपाकीक्षेत्रविपाकी-जीवविपाकी प्रकृतियाँ, चारनिक्षेपोंके द्वारा कोका कथन तथा सभी काँके नो कर्मोंका समुल्लेख किया गया है। बन्धोदयसत्त्वाधिकार में ८७ से ३५७ तक २७० गाथाएं हैं। इनमें बन्ध-उदय और सत्त्व, बन्धउदय व सत्त्वव्युच्छित्ति तथा अबन्ध-अनुदव व असत्त्व जिन्हें बन्ध त्रिभंगी, उदय त्रिभंगी व सत्त्व त्रिभंगी भी कहते हैं, का गुणस्थान व मार्गणाकी अपेक्षा विस्तृत वर्णन किया गया है। बंधप्रकरणमें प्रकृति-स्थितिअनुभाग और प्रदेशबन्धका विशद कथन है। प्रकरणवश आबाधाकालका, कर्मनिषकोंके क्रमका तथा उनके स्वरूपका, अनुभागके लता दारु आदि स्थानोंका, प्रदेशबन्धके कारणभूत योगस्थानों का व उनके स्वामी तथा उनमें अल्पबहुत्वका कथन, उदीरणा व उद्वेलनादिका भी विवेचन इसी अधिकारमें पाया जाता है। साथ ही सिद्धोंके अनन्तवेभाग और अभव्यराशिसे अनन्तगुणित समयप्रबद्धका ज्ञानाचरणादिकर्मोंकी मूल-उत्तरप्रकृतियोंमें किस विधि व किस अनुपातमें विभाजन होता इसकी विस्तृत चर्चा भी इसो अधिकारमें पायी जाती है। सत्त्वस्थानभङ्गाधिकारमें ३५८ से ३९७ तक ४० गाथाएँ हैं। इस अधिकारमें सत्त्वकी अपेक्षा प्रकृतियोंके सत्त्वस्थान व भेदोंके भंगोंका विस्तृत कधना करते हुए आचार्यदेवने किस गुणस्थानमें कितने सत्त्वस्थान कितने प्रकारोंसे हो सकते हैं इसका विशद वर्णन किया है। साथ ही कनकनन्दि आचार्यद्वारा कथित सत्त्वस्थानका कथन इस अधिकारमें पाया जाता है।

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