Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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नेमिचन्द्राचार्य की रचनाएँ
बाहुबलीचरित्र में श्री नेमिचन्द्राचार्यद्वारा रचित तीन ग्रन्थोंका उल्लेख निम्न श्लोकमें किया गया है
सिद्धान्तामृतसागरं स्वमतिमन्थक्ष्मामृदालोड्य मध्ये । लभेऽभीष्टफलप्रदानपि सदा देशीगणाग्रेसरः ॥
श्रीमद् गोम्मट - लब्धिसारविलसत् त्रैलोक्यसारामरक्ष्माज श्रीसुरधेनुचिन्तितमणीन् श्री नेमिचन्द्रो मुनिः ॥ ६३ ॥
श्लोककथित तीन ग्रन्थ १. गोम्मटसार २. लब्धिसार ३. त्रिलोकसार हैं। गोम्मटसारको जीवकाण्ड कर्मकाण्ड इन दो भागों में विभाजित कर देनेसे तथा लब्धिसारके साथ क्षपणासार भी होनेसे गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसारकर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार और त्रिलोकसार वे पाँच ग्रन्थ होते हैं। इनमेंसे लब्धिसार-क्षपणासारमें कषायपाहुड़के ११-१२-१३-१४ और १५ अधिकार का सार है एवं त्रिलोकसारमें यतिवृषभाचार्यकृत तिलोयपण्णत्ति का सार है।
कर्मकाण्डकी प्रस्तुत टीकाकी विशेषता
गोम्मटसार जीवकाण्ड व कापर व श्री. केर्थी भाग कर्नाटकवृत्ति लिखी जिसके आधारसे ही वर्तमान में उपलब्ध संस्कृतटीका की रचना की गई है तथा इसी संस्कृतटीका के अनुसार पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीने ढुंढारी भाषामें अनुवाद किया था जो लगभग ६०-६२ वर्ष पूर्व कलकत्ता से शास्त्राकारमें प्रकाशित हुआ था, किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध है। पंडितजीके समय तक धवल, जयधवल व महाबन्ध ग्रन्थ उपलब्ध नहीं थे। यह सौभाग्यकी बात है कि अब धवलादि महान् ग्रन्थोंका हिन्दी अनुवादसहित प्रकाशन हो चुका है।
कर्मकाण्डकी संस्कृतटीका एवं ढुंढारी भाषाके अनुवादमें कुछस्थल ऐसे हैं जो धवल - जयधवलके अनुकूल नहीं हैं तथा ऐसी भी कुछ गाथाएं हैं जिनपर संस्कृत व हिन्दी टीकाकारोंने विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया है, किन्तु भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्राकृत पंचसंग्रहकी प्राकृतवृत्तिमें विशेष स्पष्टीकरण पाया जाता है, अतः उन गाथाओंका विशेषार्थ पंचसंग्रहकी प्राकृतवृत्तिके अनुसार लिखा गया है। कई स्थलोंपर अभी तक मुद्रितप्रतियों में आगत गाथाक्रममें प्रकरणको ठीक प्रकारेण यथास्थान स्पष्ट करने के लिये परिवर्तन ( आगे-पीछे ) किया गया है।
मुद्रित कर्मकाण्ड में मूल गद्यभाग छोड़ दिया गया है। जैसे गाथा २२ में आठ मूलप्रकृतियोंकी उत्तरभेदरूप प्रकृतियोंकी संख्या बतलाई गई हैं और गाथा २३-२४-२५ में पाँचों निद्राओंका कार्य बतलाया किन्तु ये प्रकृतियाँ किस मूलकर्मकी हैं यह ज्ञात नहीं होता। अतः यह प्रतीत होता है कि गाथा २२२३ के मध्य में ऐसा मूल पाठ था जिसमें ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मकी उत्तरप्रकृतियों का नामोल्लेख हो इसी प्रकार गाथा २५ के पश्चात् वेदनीयकर्मसम्बन्धी उत्तरप्रकृतियों तथा मोहनीय कर्मके भेद व दर्शनमोहनीयकी
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