Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 18
________________ पेज्जदोषप्राभृतके १६ हजार मध्यमपद हैं, जिनके अक्षरोंका प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी-इकसठ-लाखसत्तावनहजार-दो सौ बानवे करोड़, बासठलाख, आठहजार होता है। इतने विस्तृत ग्रन्थको श्री भगवद् गुणधराचार्यने केवल २३३ गाथाओंमें निबद्धकर कषायपाहुड़ग्रन्थ की रचना की जो आचार्य परम्परासे श्री आर्यमंक्षु और श्री नागहस्ति आचार्योंको प्राप्त हुआ। उनसे सीखकर श्री यतिवृषभाचार्यने वृत्ति (चूर्णि) सूत्र रचे। यद्यपि पखंडागम और कषायपाहुड़ इन दोनों ग्रन्थोंपर अनेक टीकाएँ रची गईं, किन्तु आचार्य श्री वीरसेनस्वामी द्वारा तर्कपूर्ण विस्तृत धवल व जयधवल टीकाएँ क्रमश: षट्खंडागम व कषायपाहुड़ पर लिखे जाने के पश्चात् अन्यटीकाओंका पठन-पाठन लुप्त हो गया और धवल-जयधवल टीकाओंका पठन-पाठन प्रचलित हो गया। अतिसंक्षिप्त और अर्थपूर्ण छहहजारश्तोकप्रमाण चूर्णिसूत्रका रहस्य वीरसेनाचार्यने साठहजारश्लोकप्रमाण जयधवल टीका में खोला है। ___षखंडागम व कषायपाहुड़ तथा इन दोनोंकी धवल व जयधवल टीकाके साररूपमें श्री नेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने श्री चामुण्डराय अपरनाम गोम्मटके लिये गोम्मटसारग्रन्थको रचना की। चामुण्डराय गंगनरेश राचमल्लके प्रधानमन्त्री और सेनापति.थे। इन्होंने ही श्रवणबेलगोला के विन्ध्यािर पर्वत पर श्री बाहुबली की उत्तुंग मूर्ति का निर्माण कराकर प्रतिष्ठाविधि करवायी थी। साथ ही चन्द्रगिरिपर चामुण्डरायके द्वारा ही निर्मापित जिनालयमें एक हस्तप्रमाण इन्द्रनोलमाणी श्रीनिमिमा भगवान्की प्रतिमा स्थापित हुई थी। इन्हीं चामुण्डायको वीरमार्तण्ड की उपाधि भी प्राप्त थो। नेमिचन्द्राचार्थने चामुण्डरायके द्वितीय गोमटरायनामके समर्थनमें निम्न दो गाथाएँ कही हैं अज्जज्ञसेन गुणगणसमूह संधारि अजियसेन गुरु। भुवणगुरु जस्स गुरु सो राओ गोम्मटो जयउ ।।७३३॥ गो. जी. का.॥ जेण विणिम्मिय-पडिमा-वयणं सव्वसिद्धिदेवेहि । सव्वपरमोहिजोगिहिं दिटुं सो राओ गोम्मटो जयऊ ।।९६९॥गो.क.का.॥ धवलादि का साररूप यह ग्रन्ध गोम्मटरायके लिए तैयार किया गया था इसलिये इस ग्रन्थ का नाम गोम्मटसार प्रचलित हुआ और उन्होंने ही बाहुबलीस्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी अतः वह मूर्ति गोम्मटेश्वर कही जाती है। नेमिचन्द्राचार्य पुष्पदन्त-भूतबली आचार्यद्वारा विरचित षट्खंडागम सूत्रोंके पारगामी थे ऐसा स्वयं उन्होंने प्रगट किया है जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण। तड़ मइ चक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्म ||३९७ ॥ गो.क. ।।

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