Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 25
________________ पूर्व-उत्तर-दक्षिण-पश्चिम चारों दिशाओं व विदिशाओं (आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऐशान) में (विहरमाणेण) विहार करते हुए, (जुगंतर दिट्ठिणा भव्वेणदट्ठव्वा) भव्य जीव के द्वारा चार हाथ प्रमाण भूमि को दृष्टि से देखकर चलते हुए, (पमाद दोसेण) प्रमाद के वश से (डवडवचरियाए) जल्दी-जल्दी ऊपर को मुख कर चलने से (पाण-भूद-जीव-सत्ताण) विकलेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रिय व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक जीवों का (उवघादो) उपघात (कदो वा) स्वयं किया हो, (कारिदो वा) कराया हो या (कीरंतो व समणुमण्णिदो) करते हुए की अनुमोदना की हो, तो (तस्स) तत्संबंधी (मे) मेरे (दुककड) दुष्कृत्य (मिच्छा) मिथ्या हों। ___(भंते!) हे भगवान् ! (इरियावहियाए) ईर्यापथ में (अणागुत्ते) मन-वचन-काय की गुप्ति रहित होकर (विराहणाए) जो कुछ जीवों की विराधना की है (पडिक्कमामि) उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ! (अइगमणे) शीघ्र गमन करने में, (णिग्गमणे) चलने की प्रथम क्रिया प्रारंभ करने में, (ठाणे) जहाँ कहीं ठहरने में, (गमणे) गमन में, (चंकमणे) हाथ-पैर फैलाने या संकोच करने में, (पाणुग्गमणे) प्राणियों पर गमन करने में, (बीजूग्गमणे) बीज पर गमन करने में, (हरिदुगगमणे) हरितकाय पर गमन करने में, (उच्चार पस्सवण-खेल-सिंहाण-वियडियपइ-ट्ठावणियाए) मल-मूत्र क्षेपण करने में, थूकने में, कफ डालने में इत्यादि विकृतियों के क्षेपण में। (जे) जो (एइंदिया वा, बेइंदिया वा, तेइंदिया वा, चउरिदिया, वा, पंचिदिया वा) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय (जीवा) जीव (णोल्लिदा वा, पेल्लिदा वा, संघट्टिदा वा संघादिदा वा परिदाविदा वा, किरिच्छिदा वा, लेस्सिदा वा, छिदिदा वा भिंरिदा वा हाणदो वा ठाण, चंकमणदो वा) रोके गये हों, समस्त जीव इकट्ठे एक जगह रखे गये हों, एक-दूसरे की रगड़ से पीड़ित हुए हों, चूर्ण कर दिये हों, मूर्छित किये गये हों, टुकड़े-टुकड़े कर दिये हो, विदीर्ण किये हो, अपने ही स्थान पर स्थित हो, गमन कर रहे हों ऐसे जीवों की मुझसे (विराहणाए) जो कुछ विराधना हुई हो (तस्स पायच्छिसकरण) उसका प्रायश्चित करने के लिये, (तस्स विसोहिकरण) उसकी विशुद्धि करने के लिये (पडिक्कमामि) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। Expiation: Oh Lord! I expiate for the killing and injuring one sense to five sense being by not observing the carefulness of walking and the disciplines, preservations of mind, speech and body. I expiate for the killings and injuries cause to living being by me in the removal of karmic impurities, which have been caused by me in.course of walking with great speed, in commencement of walking, in staying, in Gems ofJainaWisdom-IX.23

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