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यावत्तवच्चरणद्वयस्य भगवन्! नस्यात् प्रसादोदयस्तावज्जीव निकाय एष वहति प्रायेण पापं महत्।।7।।
(प्रभापरिकरः) किरणों के तेज समूह से युक्त (भासयन्) दिशा-विदिशाओं को प्रकाशमान करने वाला (श्रीभास्करः) शोभायमान सूर्य (यावत्) जब तक (न उदयते) उदित न होता (तावत्) तब तक (इह) इस लोक में (पक्ड़जवन) कमल वन (निद्रा-अतिभार-श्रमम्) निद्रा की अधिकता से उत्पन्न खेद को अर्थात् मुकुलित अवस्था को (धारयति) धारण करता है। इसी प्रकार (भगवन्) हे भगवन् (यावत्) जब तक (त्वत चरण-द्वयस्य) आपके दोनों चरण-कमलों के (प्रसाद-उदय) प्रसाद का उदय (न स्यात्) नहीं होता; (तावत्) तब तक (एष जीवनिकाय) यह जीवों का समूह (प्रायेण) प्रायः (महत् पाप) बहुत भारी पाप को (वहति) धारण करता है।
O God! just as a lotus-forest bears the burden of the exertion of somnolent (drowsiness/sleep) untill the rise of the sun, having- the halo of light and lustre; similarly, the mundane - soul bears the burden of accumulated sins (or vices) untill the flowering of the pair of your kind lotusfeet (which emanates and bestows the blessings-upon mundane-souls).
शान्तिं शान्ति जिनेन्द्र शान्त, मनसस्त्वपाद पद्रमाश्रयात्। संप्राप्ताः पृथिवी तलेषु बहवः, शान्त्यर्थिनः प्राणिनः।। कारुण्यान् मम भाक्तिकस्य च विभो! दृष्टि प्रसन्नां कुरु। त्वत्पादद्वय दैवतस्य गदतः, शान्त्यष्टकं भक्तितः।।8।।
(शान्ति जिनेन्द्र) हे शान्तिनाथ भगवान्! (पृथिवी-तलेषु) पृथवी तल पर (शान्त मनसः) शान्त मन के धारी ऐसे (शान्त्यर्थिनः) शान्ति के इच्छुक (बहवः प्राणिनः) अनेकों प्राणी (त्वत्-पाद-पद्य-आश्रयात्) आपके चरण-कमलों के आश्रय से (शान्ति सम्प्राप्ताः) शान्ति को सम्यक् प्रकार से प्राप्त होते हैं, हुए हैं। (विभो!) हे भगवन् ! (त्वत् पादद्वय-दैवतस्य) आपका चरण युगल ही जिसका आराध्य देवता है, (भाक्तिकस्य) आपका भक्त (भक्तितः) भक्ति से जो (शान्ति अष्टक) शान्ति अष्टक का स्पष्ट उच्चारण कर रहा है, ऐसे (मम) मेरे (दृष्टि) सम्यक्त्व को (कारुण्यात्) दया भाव से (प्रसन्नां कुरु) निर्मल करो।
OJinendra Shantinath! many (rather, innumerable) mundane-souls, craving for peace have attained it by receiving
106 . Gems of Jaina Wisdom-IX