Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 143
________________ नन्दीश्वर भक्ति (Eulogy of Nandiswara) त्रिदशपतिमुकुट तट गतमणि, गणकर निकर सलिलधाराधौत। क्रमकमलयुगलजिनपति रूचिर, प्रतिबिम्बविलय विरहितनिलयान।। 1।। निलयानहमिह महसां सहसा, प्रणिपतन पूर्वमवनौम्यवनौ। त्रयां त्रयया शुद्धया निसर्ग, शुद्धान्विशुद्धये घनरजसाम्।। 2 ।। (इह) यहाँ (त्रय्या) तीनों लोकों में (महसां निलयान्) जो तेज के गृह हैं (निसर्ग शुद्धान्) स्वभाव से शुद्ध हैं, (त्रिदशपति-मुकुटतटगत-मणिगण-कर-निकर-सलिल धारा धौतक्रम-कमल-युगल-जिनपतिरूचिर-प्रतिबिम्ब-विलय-विरहित-निलयान) इन्द्रों के मुकुटों के किनारे पर लगी मणिसमूह के किरण कलाप रूपी जल की धारा से प्रक्षालित चरण-कमल युगल वाले जिनेन्द्र की मनोज्ञ सुन्दर प्रतिमाओं के विनाश रहित/अविनाशी जिन-मन्दिरों को (सहसा) शीघ्र (अवनी) पृथ्वी पर (प्रणितपनपूर्वम्) गिरकर (त्रख्याशुद्ध्या) मन-वचन-काय की शुद्धि से (घनरजसाम् विशुद्धये) सुदृढ़ कर्म पटल/कर्मराज की विशुद्धि के लिये अर्थात् कर्मक्षयार्थ (अवनौमि) नमस्कार करता हूँ। I pay my respectful obeisance by bowing down with folded hands and touching the holy ground with my forhead, with my purified mind-speech-body in order to clean the dust of karmic bondages of knowledge obstructing karma etc. to all the natural indestructible fascinating beautiful idols/images of Jinas as well as to temples of Jinas existing in all the three universes. These idols of Jinas have got such pairs/couples of feet, which are washed by the water currents of the reflections of the rays of divine gems adoring the edges of the crown of lords of celestial beings. भावनसुर-भवनेषु, द्वासप्तति-शत-सहस्त्र-संख्याभ्यधिकाः। कोटयः सप्त प्रोक्त, भवनानां भूरि-तेजसां भुवनानाम् ।। 3 ।। (भावनसुर-भवनेष) भवनवासी देवों के भवनों में, (भूरितेजसांभवनानाम) अत्यणिक तेज से/ दीप्ति से युक्त भवनों में (भुवनानाम्) चैत्यालयों की संख्या (द्वासप्तति-शतसहस्त्र-संख्याभ्यधिकाः सप्तकोटयः) बहत्तर लाख संख्या से अधिक सात करोड़ (प्रोक्ता) कही गई है। Gems of Jaina Wisdom-IX 141

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