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(त्रिभुवननाथस्य वैभवं पश्चन्ती) तीन लोक के नाथ जिनेन्द्र देव के वैभव को देखती हुई (भूमिः) पृथ्वी (परिहषित इव) हर्ष-विभोर होती हुई के समान (फलभार नम्रशालि-ब्रीहि-आदि-समस्त-सस्य-धृत-रोमाञ्चा) विविध प्रकार के फलों के भार से झुकी हुई, शालि, ब्रीहि आदि समस्त धान्यों को धारण करती हुई; रोमांच को प्राप्त हो उठी थी।
Titellation of earth causing the germination and sprouting of plants of rice “brihi” and all other grains and loading of the branches of trees and plants with fruits and flowers concerned due to beholding/looking to the affluance/glories of the lord of all the three universes.
शरदुदय-विमल-सलिलं, सर इव गगनं विराजते विगतमलम। जहति च दिशस्तिमिरिकां, विगतरजः प्रभृति जिह्यता भावं सद्यः।। 48 ।।
(शरदुदय-विमल-सलिलं सर इव विगत मलं गगन) शरद ऋतु के काल में निर्मल सरोवर के समान धूलि आदि मल से रहित आकाश (विराजते) सुशोभित होता है (च) और (दिशः) दिशाएं (सद्यः) शीघ्र ही (तिमिरिकां जहति) अंधकार को छोड़ देती है तथा (विगतरज प्रभृति जिह्यताभावं) धूलि आदि की मलिनता के अभाव को प्रकट करती हुई, शीघ्र निर्मल हो जाती है।
The sky becoming free from/devoid of dust and filth etc. comparable with clean water of the water reservoir in the automn season and the giving up of darkness by all directions consiquent upon being free from the pollutions of dust etc.
एतेतेति त्वरितं ज्योति-य॑न्तर-दिवौकसा-ममृतभुजः । कुलिशभृदाज्ञापनया, कुर्वन्त्यन्ये समन्ततो व्याह्नानम्।। 49।।
(कुलिशभृदाज्ञापनया) इन्द्र की आज्ञा से (अन्ये अमृतभुजः) अन्य देव (त्वरितं एत-एत इति) शीघ्र आओ, शीघ्र आओ इस प्रकार (ज्योतिः व्यन्तर-दिवौकसां) ज्योतिष्क, व्यन्तर और वैमानिक देवों को (समन्ततः) सब ओर (व्याहानम्) बुलाया (कुर्वन्ति) करते हैं।
Giving up calls by in number of gods to stellar gods, perapetatic gods and vaimānika gods saying come soon, come
Gems of Jaina Wisdom-IX
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