Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 116
________________ समाधि भक्ति (Samadhi-Bhakti) स्वात्माभिमुख-संवित्ति, लक्षण श्रुत-चक्षुषा, .. ---- पश्यन्पश्यामि देव त्वां केवलज्ञान-चक्षुषा।। 1।। जो भव्य जीव श्रुतज्ञान रूप चक्षु से आगम के अनुसार आपकी आराधना करता है, वह केवलज्ञान रूपी नेत्र से सर्वलोक का अवलोकन करता है अर्थात् केवलज्ञान को अवश्य प्राप्त करता है। The soul capable to attain salvation knows self with all its attributes by facing self and worship/rever you with eyes of scriptures in accordance with cannons, he perceive the whole universe, with the eyes of omniscience perfect knowledge. He surely succeeds in attaining omniscience. शास्त्राभ्यासो जिनपति-नुतिः, संगति सर्वदायैः, सवृत्तानां गुणगण-कथा, दोषवादे च मौनम्। सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्वे, संपद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः।। 2।। हे जिनेन्द्र देव! मैं जब तक मुक्त अवस्था को प्राप्त न हो जाऊँ तब तक प्रत्येक भव में मैं जिनेन्द्र कथित सच्चे आगम का अभ्यास करता रहूँ। तब तक आपके चरणों में नतमस्तक हुआ, आपकी स्तुति करता रहूँ, हमेशा साधु मनुष्यों की, आर्य पुरुषों की संगति करता रहूँ। आपके चरणों की आराधना का एकमात्र फल यही हो कि रत्नत्रयधारियों, सदाचारियों के दोषों के कथन में मैं मौन रहूँ।प्राणीमात्र में हितकर-प्रिय वचनों से वार्तालाप करूँ और अन्त में यही प्रार्थना है कि मैं अपने आत्मतत्व की भावना मुक्ति-पर्यन्त भाता रहूँ। O Jineņdra dev! I with respect and humility pray that unless and until I attain salvation; I should during all my present and future incarnations of mine ceaselessly continue to study scriptures, worship the feet of Jina and live in company of high personages. I pray that during this period I should appreciate and narrate the virtues (merits) of persons of right conduct and keep silence regarding their faults. I also 114 • Genus of Jaina Wisdom-IX

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