Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 123
________________ the present has there been a better (superior) god than the dispassionate or non-attached god (as you are). जिर्नेभक्ति-जिर्नेभक्ति-जिर्नेभक्ति-दिने दिने। सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु, सदामेऽस्तु भवे भवे।। 17 ।। हे प्रभो! मेरी वीतराग देव, देवाधिदेव में भक्ति प्रतिदिन हो, भव-भव में हो, सदा काल हो। मैं सदाकाल आपकी भक्ति की भावना करता रहूँ। I pray for constant devotion to Jin dev everyday. My devotion to Jin dev be forever, forever, forever in all my lives. याचेऽहं याचेऽहं, जिन! तव चरणारविंदयोभक्तिम् । याचेऽहं याचेऽहं, पुनरपि तामेव तामेव ।। 18|| हे प्रभो! मैं बारम्बार आपके चरण-कमलों की भक्ति की याचना करता हूँ, उसकी प्राप्ति की बार-बार इच्छा करता हूँ। O Jin dev! I beg devotion to lotus feet of Jin dev. I do again beg it; I do again and again beg it. विध्नौघाः प्रलयं यान्ति, शकिनी-भूत पन्नगाः। विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे।। 19।। जिनेश्वरदेव की स्तुति करने से विध्नों का जाल समाप्त हो जाता है, शाकिनी, भूत, सर्प आदि की बाधाएं क्षण भर में क्षय को प्राप्त हो जाती है, तथा भयानक विष भी निर्विष हो जाता है। The eulogy of shree Jineshwar dev destroys/overcomes all obstruction/impediments. It destroys/annihilates shākinih, bhutas (ghost), pannagas etc. It converts/transforms poison into a poisonless object. इच्छामि भंते! समाहिभत्ति काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं रयणत्तयसरूवपरमप्पज्झाणलक्खणं समाहिभत्तीये णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ, मज्झं।। Gems of Jaina Wisdom-IX 121

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