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कीर्तिककृष्ण स्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्यकर्मरजः। अवशेषं संप्रापद्व्यजरामरमक्षयं सौख्यम्।।17 ।।
वे सकल परमात्मा महावीर स्वामी ने (कार्तिका-कृष्णस्य-अन्ते) कार्तिक मास में, कृष्ण पक्ष के अन्त में, (स्वातौ ऋक्षे) स्वाति नक्षत्र के काल में (अवशेषं कर्मरजः निहत्य) सम्पूर्ण अघातिया कर्मों की प्रकृतियों का क्षय करके (वि-अजरम् अमरम अक्षयम सौख्यम्) जरा-मरण से रहित अक्षय, अविनाशी, शाश्वत सुख को (संप्रापद्) प्राप्त किया।
Lord Mahāvira attained indestructible eternal bliss free from (the vicious circle of ) birth, oldage and death, after destroying four kinds of non-fatal karmas at the end of the dark fortnight of the month of Kaartika (i.e. amaavasya), when the moon appeared in Swāti naksatra.
परिनिर्वृत्तं जिनेन्द्रं ज्ञात्वा विबुधायथासु चागम्य । देवतरु रक्तचन्दन कालागुरु सुरभिगोशीषः।। 1811 अग्नीन्द्राज्जिनदेहं मुकुटानलसुरभि धूपवरमाल्यैः। अभ्यर्च्य गणधरानपि गतादिवं खं च वनभवने।। 19।।
(अथ हि) तत्पश्चात् (जिनेन्द्रं परिनिर्वृत्तं ज्ञात्वा) वीर जिनेन्द्र को मुक्त हुए जानकर (विबुधाः) चारों निकाय के देवों ने (आशु आगम्य) शीघ्र आकर के (देवतरु-रक्त-चन्दन-कालागुरु-सुरभिगोशीषैः) देवदारू, लाल चन्दन, कालागुरु और सुगन्धित गोशीर्ष-चन्दनों से (अग्नीन्द्रात) अग्निकुमार देवों के स्वामी “अग्नीन्द्र" के (मुकुट-अनल-सुरभि-धूप वार-माल्यैः) मुकुट से प्राप्त अग्नि, सुगन्धित धूप व उत्कृष्ट मालाओं के द्वारा (जिनदेह) जिनेन्द्र देव के शरीर की (अभ्यचर्य) पूजा की, उनका अग्नि संस्कार या अन्तिम संस्कार किया तथा (गणधरान् अपि अभ्यर्च्य) गणधरों की भी पूजा की। इसके बाद (दिवं खं च-वनभवने) सभी देव स्वर्ग को, आकाश को, वन और भवनों को चले गये।
There after, having known about the salvation of lord Mahāvira, the gods of all the four kinds immediately came there and worshipped the dead body there of by the sandal woods of Devadaaru, red sandal, Kālāguru and Gosyrsa and the fire provided by the crown of the lord of fire, fragrant essence and superior garlands; and in this way perform the
Gems of Jaina Wisdom-IX
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