Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 118
________________ image/idol of Jina, where discussion on the doctrines of Jainism is being held, where the waves in the ocean of true religion continue to move further and further creating fine sound. जन्मजन्मकृतं पापं, जन्मकोटि समार्जितम. जन्ममृत्युजरामूलं, हन्यते जिनवंदनात्।। 5 ।। हे प्रभो! आपके वन्दन, दर्शन की महिमा अपार है। आपके चरणकमलों की वन्दना करने से भव्यजीवों के अनेकों जन्मों से संचित पाप, जो जन्म-जरा-मृत्यु रूपी ताप-त्रय के मूल हेतु हैं, एक क्षणमात्र में क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। (Be it noted that) veneration or worship of Jina destroys all sins committed in various lives (incarnations) and sins accumulated in the millions of past incarnation- sins which are the root cause of the vicious circle of birth, oldage and death i.e, transmigration in mundane existence. आबाल्याज्जिनदेवदेव! भवतः, श्री पादयोः सेवयाः, सेवासक्तविनेयकल्पलतया, कालोऽद्ययादवद्गतः। त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना, प्राणप्रयाणक्षणे, त्वन्नामप्रतिबद्धवर्णपठने, कण्ठोऽस्त्वकुण्ठो मम।। 6 ।। हे वीतराग, देवाधिदेव, जिनेन्द्र प्रभो! मैंने बाल्यकाल से लेकर आज तक का समय वीतराग प्रभु की आराधना, अर्चना, वन्दना में व्यतीत किया। आपकी आराधना, श्रद्धावनत भक्तों को इच्छित फल देने वाली कल्पलता है। आपकी आराधना आराधक को इष्ट का संयोग कराती है। हे प्रभो! आज मैं आपके श्रीचरणों में उस भक्ति और आराधना का अनुपम फल मांगने आया हूँ। मेरी याचना यह है कि “हे प्रभो! प्राणों के विसर्जन काल में मृत्यु के अन्तिम क्षण में मैं आपके नाम का उच्चारण करते हुए प्राणों का त्याग करूँ। मेरा कण्ठ एक क्षण के लिये भी अवरूद्ध न हो "हो सिद्ध-सिद्ध मुख में जब प्राण तन से निकले"। बस यही भावना है। O Jinendra dev! my whole life since childhood has been devoted to the service of your lotus feet. Such service by devotees is as fruitful as celestial creeper, which fulfills all 116 • Gems of Jaina Wisdom-IX

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