Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 106
________________ त्रैलोक्येश्वर भंग लब्ध विजयादत्यन्त रौद्रात्मकान्, नाना जन्म शतान्तरेषु पुरतो जीवस्य संसारिणः। को वा प्रस्खलतीह केन विधिना कालोन दावानलान, न स्याच्चेत्तव पाद पद्म युगल स्तुत्यापगा वारणम्।।4।। (त्रैलोक्य-ईश्वर-भग्ड-लब्ध-विजयात्) अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक के अधिपतियों के नाश से प्राप्त हुई विजय से जो (अत्यन्त-रौद्रात्मकात्) अत्याधिक क्रूरता को प्राप्त हुआ है, ऐसे (काल-उग्र-दावानलात्) मृत्यु रूपी प्रचण्ड दावाग्नि से (नाना-जन्म-शत-अन्तरेषु) अनेक प्रकार के सैकड़ों जन्मों के बीच (इह) इस जगत् में (कः) कौन (केन विधिना) किस विधि से (प्रस्खलित) बच सकता है? अर्थात् कोई नहीं; (चेत्) यदि (संसारिणः जीवस्य) संसारी जीवों के (पुरतः) आगे (तव) आपके (पादपद्य-युगल-स्तुति-आपगा) दोनों चरणकमल की स्तुति रूपी नदी (वारण) निवारण करने वाली (न स्यात्) नहीं होती। O Lord of all the three worlds! the fierce forestconflagration of death is extremely horrible; it causess mundane souls to transmigrate to various breeding-centres (yonis); and it has subjugated (or enslaved) the animate-beings of all the three worlds. Had there been no shelter/resort/refuge of the river of doxology (prayer/eulogy) of the pair of your feet, available to the animate-beings of the world, how could any-one of them save himself from the wrath of that fierce forest-conflagrations called death. लोकालोक निरन्तर प्रवितत् ज्ञानैक मूर्ते विभो! नाना रत्न पिनद्ध दण्ड रुचिर श्वेतातपत्रत्रय। त्वत्पाद द्वय पूत गीत रवतः शीघ्रं द्रन्त्यामया, दध्मिातमृगेन्द्रभीम निनदाद् वन्या यथा कुञराः।।5।। (लोक-अलोक-निरन्तर-प्रवितत्-ज्ञान-एक-मूत) लोक और अलोक में निरन्तर विस्तृत ज्ञान ही निज की एक अद्वितीय मूर्ति है। (नानारत्न-पिनद्ध-दण्डरुचिर-श्वेत-आतपत्र-त्रय) जिनके सफेद छत्र-त्रय नाना प्रकार के रत्नों से जड़ित सुन्दर दण्ड वाले हैं, ऐसे (विभो!) हे अलौकिक विभूति के स्वामी शान्ति जिनेन्द्र! (त्वत्-पाद-द्वय-पूत-गीत-रवतः) आपके चरण युगल के पावन स्तुति के शब्दों से (आमया) रोग (शीघ्र) शीघ्र (द्रवन्ति) भाग जाते हैं। (यथा) जिस प्रकार (दध्मिात-मृगेन्द्र-भीम-निनदात्) अहंकारी सिंह की भयानक गर्जना से (वन्या कुञराः) जंगली हाथी। 104 • Gems of Jaina Wisdom-IX

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