Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 33
________________ (अतः) क्षुधा आदि भयंकर दुःखों के अभाव से (तस्य सिद्धस्य) उन सिद्ध परमेष्ठी के जो (परम सुख) श्रेष्ठ अनन्त सुख (जातम्) उत्पन्न हुआ है; वह (आत्मा-उपादान-सिद्ध) आत्मा की उपादान शक्ति से अथवा आत्मा से ही उत्पन्न है। वह सुख (स्वयम्-अतिशयवत्) सहज/स्वाभाविक अतिशयवान् है अर्थात् आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त होकर रहता है, (वृद्धि-हास-व्यपेत) वह सुख हीनाधिकता से रहित है, (विषय-विरहित) पंचेन्द्रिय विषयों से रहित है, (निःप्रतिद्वन्द-भाव) प्रतिपक्षी भाव से रहित है, (अन्य-द्रव्यानपेक्ष) अन्य द्रव्य/पदार्थों की अपेक्षा से रहित है, (निरूपम) उपमातीत है, (अमित) सीमातीत है, प्रमाणातीत है, (शाश्वत) अचल है, अविनाशी है, (सर्वकाल) सदा बना रहने वाला है और (उत्कृष्ट-अनन्त-सार) उत्कृष्ट, अनन्त काल तक रहने वाला व सारपूर्ण है। In the absence of the great pains and agonies caused by hunger etc. the supreme being bodyless pure and perfect soul (Siddha) attains and is manifested by endless eternal bliss, such bliss arises out of the substance of soul. That bliss is natural and highly accessive, unobstructed, much more extensive, free from becoming more or less, (static), devoid of the subjects of five senses, unopposed, unrelated with other substaness, incomparable, unlimited, permanent, ever lasting, excellent, liable to exist/stay for infinite period and most important. नार्थः क्षुत्-तृड्-विनाशाद्, विविध-रस-युतै-रनन-पानै-रशुच्या। नास्पृष्टे-गन्ध-माल्यै-नहि-मृदु-शयनै-ग्लानि-निद्राधभावात्। आतंकार्ते रभावे, तदुपशमन-सभेषजानर्थतावद् । दीपा-नर्थक्य-वद् वा, व्यपगत-तिमिरे दृश्यमाने समस्ते।।8।। (आतंक-आतेः अभावे) रोग-जनित पीड़ा का अभाव होने पर (तत् उपशमन सत्-भेषज-अनर्थ तावत्) उस रोग को शमन करने वाली समीचीन/उत्तम औषधि की अप्रयोजनीयता के समान (वा) अथवा (व्यपगत-तिमिरे) अन्धकार रहित स्थान में (समस्ते दूश्यमाने) समस्त पदार्थों के दिखाई देने पर (दीप-अनर्थक्यवत्) दीप की निरर्थकता के समान सिद्ध परमेष्ठी भगवन्तों के (क्षुत्तृट्-विनाशात्) क्षुधा/भूख, प्यास का विनाश हो जाने से (विविध-रसयुतैः अस्पृष्टेः) षट् रस मिश्रित भोजन व पानी आदि से (न अर्थः) कोई प्रयोजन नहीं है। (अशुच्याः अस्पृष्टेः) अशुचितां/अपवित्रता से स्पर्श नहीं होने से (गन्धमाल्यैः न) सुगंधित चन्दन, इत्र फूलेल आदि से, पुष्प मालाओं आदि से Gems of Jaina Wisdom-IX 31

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