Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

Previous | Next

Page 83
________________ सज्झानामृतपायिभिः, क्षान्तिपयः सिञ्चयमानपुण्यकायैः । धृतसंतोषच्छत्रकैः, तापस्तीव्रोऽपि सह्यते मुनीन्द्रैः ।। 4 ।। (सत् ज्ञान - अमृत-पायिभिः) जो मुनिराज निरन्तर सम्यक्ज्ञान रूपी अमृत का पान करते हैं, ( क्षान्तिपय- सिच्यमान - पुण्यकायैः) क्षमा रूपी जल से जिनका पुण्यमय / पवित्र शरीर सींचा जा रहा है, (धृत- सन्तोष - छत्रकैः) जिन्होंने सन्तोष रूपी छत्र को धारण किया है, ऐसे ( मुनीन्द्रैः) महा साधुओं के द्वारा ( तीव्रः अपि तापः ) घोर संताप भी (सह्यते) सहन किया जाता है । How do saints suffer the tortures of heat? Great saints suffer/undergo the tortures of excessive heat, because they contantly drink the nector of right knowledge. Because their bodies are drawned in the waters of forgiveness and because they uphold the umbrella of contentment. शिखिगल कज्जलालिमलिनै, विबुधाधिपचाप चित्रितैः, भीमरवैर्विसृष्टचण्डा शनि, शीतल वायु वृष्टिभिः । गगनतलं विलोक्य जलदैः, स्थगितं सहसा तपोधनाः, पुनरपि ततलेषु विषमासु, निशासु विशंकमासते । 15 ।। (शिखिगल - कज्जल - अलिमलिनैः) मयूर के कण्ठ, काजल और भ्रमर के समान काले ( विबुध-अधिप-चाप - चित्रितैः), जो इन्द्र-धनुष से चित्रित (भीमखैः ) भयंकर गर्जना करने वाले, (विसृष्ट- चण्ड-अशनि - शीतल वायु- वृष्टिभिः) प्रचण्ड वज्र, शीतल हवा व वर्षा को छोड़ने वाले ऐसे (जलदैः) मेघों के द्वारा (स्थगित) आच्छादित ( गगनतलं विलोक्य) आकाश तल को देखकर (तपोधनाः) तपस्वी मुनिगण ( सहसा ) शीघ्र ही (विशक्डं) भय रहित हो, (विषमासु निशासु) विषम याने भयानक रात्रियों में (पुनरपि ) बारबार (तरूत्तलेषु) वृक्षों के नीचे (आसते) विराजते हैं । What do saints do in rainy season? Great saints sit in rainy season under trees. Such saints do not at all fear inspite of looking towards clouds - which are as dark as the neck of a peacock, blackness and collierium; which are pictures due to rain bows, which are highly roaring and which cause great thunder-bolts, cold winds and accessive rains to pour down on earth. Gems of Jaina Wisdom-IX ● 81

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180