Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 85
________________ इति योगत्रयधारिणः, सकलतपशालिनः प्रवृद्धपुण्यकायाः। परमानन्दसुखैषिणः, समाधिमग्रयं दिशतु नो भदन्ताः।।8।। (इति) इस प्रकार (योगत्रय-धारिणः) आतापन-वृक्षमूल-अभ्रावकाश योगों को धारण करने वाले, (सकल तपः शालिनः) समस्त तपों से शोभायमान (प्रवृद्ध-पुण्यकायाः) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त पुण्य के समूह से सहित और (परम-आनन्द-सुख-ऐद्विाणः) परमानन्द-अव्याबाध सुख की इच्छा करने वाले (भदन्ताः) भगवान् मुनिराज (नः) हम सबको (अग्रयं) उत्कष्ट (समाधि) परम शुक्ल ध्यान (दिशन्तु) प्रदान करें। May the supreme saints - who strictly uphold/observe all the three kinds of yogas named. Aatāpana yoga (body mortification in heat), Brakchha mool (penance by sitting under a tree). Abhraavakaash (penance by sitting under in open sky) respectively during summer, rains and winter; who upholds all the austarities and are accessively virtuous and who aspire eternal trancendental bliss - bestow upon all of bliss with excellent pure meditation to all of us. क्षेपक श्लोकानि: ---- योगीश्वरा न जिनान्सर्वागनिर्धूत कल्मषान् । योगैस्त्रिाभिरहं वंदे, योगस्कंध प्रतिष्ठितान्।।।।। (योगनिधूत कलमषान्) धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान रूप योग से पाप रूपी कल्मष को नष्ट करने वाले, (योगस्कप्रतिष्ठितान्) धर्म्यध्यान शुक्लध्यान से प्रतिष्ठित/सुशोभित (सर्वान्) सभी (जिनान्) जिनों को (योगीश्वरान्) योगीश्वरों को (अह) मैं (चिमिः योगैः) मन, वचन, काय तीनों योगों के द्वारा (वन्दे) नमस्कार करता हूँ। I pay obeisance to all Jinas and ascetics with mind, speech and body. These ascetics have destroyed/eliminated all the sins/wrongs and are adorned with righteous meditation and pure meditation. प्रावृट्कालेसविद्युत्प्रपतिसिलिले वृक्षमूलाधिवासाः। हेमंते रात्रिमध्ये, प्रतिविगत भयाकाष्ठक्त् त्यक्तदेहाः।।।।। Gems of Jaina Wisdom-IX . 83

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