Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 99
________________ branches consist of right conduct and which is the abode of the birds of saints (monks). अंचालिका (Anchalika) इच्छामि भंते! आइरियभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्मणाण, सममदंसण सम्मचरित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आइरियाणं, आयारादि सुदणाणोवदेसयाणं, उवज्झायाणं, तिरयणगुणपालणरयाणं, सव्वसाहूणं, णिच्चकालं, अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कममक्खओ, बोहिलाहो, गुगइगमणं, समाहिमरणं, जिण-गुण-सम्पत्ति होउ-मज्झं। (भंते!) हे भगवान्! मैंने (आयरिय-भत्ति-काउस्सग्गोकओ) आचार्य भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया, (तस्स आलोचेउ) उसकी आलोचना करने की (इच्छामि) इच्छा करता हूँ। (सम्मणाण-सममदंसण-सम्मचरित जुत्ताण) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र से युक्त, (पंचविहाचाराणं आयरियाण) पंचाचार के पालक आचार्य परमेष्ठी की, (आयारादि सुदणाणोवदेसयाण उवज्झायाण) आचारांग द्वादशांग श्रुतज्ञान का उपदेश देने वाले उपाध्याय परमेष्ठी की, (तिरयणगुणपालणरयाण) रत्नत्रय रूपी गुणों के पालन करने में सदा तत्पर ऐसे (सव्वसाहूण) सभी साधु परमेष्ठी की मैं; (णिच्चकाल) सदाकाल (अंचेमि, पुजेमि, वंदामि, णमस्सामि) अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। मेरे (दुक्खक्खओ-कम्मक्खओ) दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, (बोहिलाहो) रत्नत्रय की प्राप्ति हो, (सुगइगमण) उत्तम गति में गमन हो, (समाहिमरण) समाधिमरण हो, तथा (जिणगुणसंपत्ति होऊ मज्झ) मेरे लिये जिनेन्द्र देव के गुणों की प्राप्ति हो। O Lord! I have perform body mortification related to divotion to Achāryas, I wish to critisize it, I always rever/ worship, salute and bowdown to supreme being Achāryas - who are equipped with right faith, right knowledge and right conduct and who observe five fold conduct to supreme being preceptors, who preach twelve organed scriptures and to supreme being saints, who are always engaged in upholoing/ adopting the attributes of three jewels. I do so in order to destroy my pains and my karmas, to acquire three jewels, to gain higher grade of life and to die with equanimity. I aspire for the attainment of the merits of shri Jineņdra deva., Gems of Jaina Wisdom-IX 97

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