Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 71
________________ चारित्र भक्ति (Charitra Bhakti) येनेन्द्रान् भुवन-त्रयस्य विलसत्-केयूर-हारांगदान्, भास्वन्-मौलि-मणिप्रभा-प्रविसरोत्-तुंगोत्तमांगान्नतान्। स्वेषां पाद-पयोरुहेषु मुनय-श्रचकुः प्रकामं सदा, वन्देपत्रचतयं तमद्य निगदन्-नाचार-मभ्यर्चितम।।।।। जिनके शरीर (विलसत्-केयूर-हार-अगङदान्) केयूर, हार व बाजूबन्द से शोभायमान है, जिनके (उत्तुंग उत्तमागङन्) ऊँचे उठे हुए मस्तक (भास्वन्-मौलिमणिप्रभा प्रवसरः) देदीप्यमान मुकुटों की मणियों की कान्ति के विस्तार से शोभायमान हैं/सहित हैं; ऐसे (भुवनत्रयस्य) तीनों लोकों के (इन्द्रान्) समस्त इन्द्रों -को/स्वामियों को (येन मुनयः) जिन मुनियों ने (सदा) हमेशा (प्रकाम) अच्छी तरह (स्वेषां पादपयोरुहेषु) अपने चरण-कमलों में (नतान् चक्रुः) नम्रीभूत किया है, ऐसे (अभि अर्चितम्) अत्यन्त पूज्य (पञचतयं निगदन) पंचाचारों का कथन करता हुआ, मैं (अद्य) आज (तम्) उस पंच भेद वाले (आचार) आचार को (वन्दे) नमस्कार करता हूँ। I here by salute and pay respect to that - five point conduct after stating those most worshippable five conducts on account of which, the saints earn the utmost devotion to the lotus feet there of by the lords (Indras) of all the three universes - whose bodies are ornamented with bracelets, (keyur), necklaces etc. and whose foreheads are illuminated by the light coming from the diamonds of crowns. ज्ञानाचार का स्वरूप (Nature of Jnānāchar) व्यञ्जन-तवया-विकलता-कालोपधा-प्रश्रयाः, स्वाचार्याधनपलवो बहु-मति-च्रेत्यष्टधा व्याहृतम्। श्रीमज्ज्ञाति-कुलेन्दुना भगवता तीर्थस्य काऽञजसा, ज्ञानाचार-महं त्रिधा प्रणिपताम्युभूवये कर्मणाम् ।।2।। (श्रीमत) अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी (ज्ञाति कुल इन्दुना) ज्ञातवंश के चन्द्रमा स्वरूप, (तीर्थस्यकत्रा) धर्मतीर्थ के कर्ता, (भगवता) भगवान् महवीर स्वामी के द्वारा (अर्थव्यञ्जन-तद्वयाक्किलता) अर्थ-अविकलता, व्यञ्जन अविकलत, अर्थव्यञ्जन अविकलता (कालोपधा प्रश्रयाः) कालशुद्धि, उपधान Gems of Jaina Wisdom-IX 69

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